ठीक नौ साल पहले!
2016 के बारे में जितना लिखा जाए कुछ न कुछ और लिखने के लिए रह ही जाएगा। उस साल की शुरुआत बहुत रुमानी हुई थी। ऐसा लगा था कि मन में जो चित्र बनी है वही आकृति सामने है। मन लोटपोट सा हो जाता था कई बार असंभव को संभव होता सोचकर। बाद में एक आंधी आई और सबकुछ खत्म हो गया। जितनी जल्दी दीवाना फिल्म में ऋषि कपूर के गायब होने के बाद शाहरूख खान की एंट्री होती है उतनी ही जल्दी भाग्य की एंट्री जिंदगी में हो चुकी थी।
अंगूठी की रस्म से पहले की रात उसके घर पर जाना, उसे मिलने के लिए बाहर बुलाना और फिर उस बड़े से वृक्ष के नीचे कुछ समय की बातचीत के बाद लगा था कि जीवन नए अध्याय लिखने में थोड़ी नरमी बरतेगा। वही हुआ। अगली सुबह जब सारी तैयारियां चल रही थी, मैं बार-बार बात कर रहा था। एक डर था जो मन में बैठा हुआ रहा हमेशा। अभी तक थोड़ा-थोड़ा।
फिर जब सगाई के लिए जाना था तो मैंने अकेला कहीं और का रास्ता नापा। पार्लर के बाहर मैं खड़ा हुआ। उसको फोन किया और वह निकली। पीछे-पीछे लाडली आई। भाग्य को दिन में पहली बार देखते हुए कुछ और देखना हो नहीं पा रहा था तब। सांवलेपन में सादगी और सीधे-सादे शब्दों में हुई कुछ बातों के बाद मैं वहां से निकल गया।
पहली तस्वीर
अंगूठी पहनाने की रस्म और दुनियादारी के बीच ये सफर जो शुरू हुआ तबसे चलता आ रहा है।
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| एक यादगार स्क्रीन |





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