Sunday, October 19, 2025

जालों का दीवार

                                                        जो उस पार चले गये...!                                 

बहुत समय से कबूतर रोकने के लिए लगाए गये उस नेट के बाहर निकली डंडियां देख रहा था। ऐसा कई बार हुआ। लगता था कुछ तो बता रही है ये डंडियां लेकिन क्या बता रही है ये सोचने और समझने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं मिल पा रहा था। कभी समय था भी तो उतनी एकाग्रता नहीं हो पाई कि समझ सकूं कि ये डंडिया कहती क्या हैं!

फिर एक दिन लगा कि जो डंडियां बाहर आ गई हैं वे धीरे-धीरे शाखा जैसे होती जा रही हैं। लचीलापन खत्म हो रहा है उनका और उनमें आ रही छोटी-छोटी पत्तियां बड़े पत्ते का रूप ले रही है। न उनमें वे मुलायमियत लगती थी और न ही वैसा सुनहलापन। जैसे-जैसे वयस्क होती जा रहीं थीं अपनी कोमलता खोती जा रही थीं। पहले जो हल्की हवाओं में भी हिलने लगती थी अब वह तेज हवाओं में भी बस अंगड़ाई जैसी कुछ लेती प्रतीत होती थी। एरोगेंस जैसा लगता था, मानो कि हवा में हिल तो रही हैं लेकिन यह भी एहसास दिला रही हैं कि वे अपनी मर्जी की मालिक हैं।

फिर बाहर निकली एक डंडी में लगे पत्ते को मैंने बहुत देर तक देखा। सुबह के करीब नौ बज रहे होंगे और किचन का काम करना बाकी था। मैं उस पत्ते को देखते हुए थोड़ा और पास चला गया तो देखा कि वह पत्ता कठोर हो गया है। मैंने उसे शुरू से देखा था जब वह नेट से बाहर आई डंडी में उगना शुरू हुआ था।

इस बार भी दीपावली में छुट्टी के लिए आवेदन करने का हिम्मत नहीं जुटा पाया। छठ के लिए जो छुट्टियों का आवेदन दिया उसको लेकर भी बहुत सारी बातें सुननी पड़ी। खुशी-खुशी छुट्टियां शायद एक-दो बार मिली है, बाकी सारी छुट्टियों के लिए बहुत तरह की शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। 

बेगूसराय में क्या बुरा था! सबकुछ। हां, सबकुछ। सवाल ये होना चाहिए कि बेगूसराय में क्या अच्छा था! हो सकता है जवाब होता कि बानो शाह का खट्टा वाला जलेबी, शर्मा जी का चाट, ठठेरी गली के पास वाला छोले-भटूरे, नगर-पालिका वाला भूंजा या फिर एनएच के बगल में मिलती ताजी-ताजी सब्जियां। और क्या था जो वहां अच्छा था! अरे हां, वे लोहियानगर ढाले के इस ओर खड़े होकर सामने से सरपट भागती तेज गाड़ियां भी तो थी। राजधानी, गरीब नवाज जैसे दो-तीन गाड़ियां जिनका बेगूसराय में स्टोपेज नहीं था, जब गुजरती थीं तो कितना मजा आता था देखकर। सांय-सांय...! बस? क्या और कुछ भी नहीं था बेगूसराय में जो अच्छा था! 

डालियां एक बार बालकनी में लगे जाल से बाहर आ जाएं तो भला वापस अंदर कहां जा पाती हैं! बेगूसराय से बाहर आने के बाद कितने सारे पंख लगे, बड़े संस्थान के सर्टिफिकेट, बड़े लोगों के साथ जान-पहचान, नया नजरिया, नई पहचान, नई आदतें-लतें, नए लोग, नए सपने और नए-नए अनुभवों का जखीरा। ये सब पत्तियों की तरह लग गये और धीरे-धीरे बड़े होते चले गए। फिर एक बार लगा कि अब वापस पहले वाली जगह पर जाना न हो पाएगा! 

टहनियां जबतक अंदर थीं, थीं! जब बाहर आईं तो टहनियां कहां टहनियां रहीं, वे तो हों गईं शाखाएं और फिर जुड़ी तो भले ही रहीं वह जड़ों से लेकिन किसी के काम न आ पाईं। अब शाखाएं बन चुकी ये टहनियां शायद ही कभी उस बालकनी के अंदर आएं जहां इनका जड़ है और जहां इनका कभी वजूद हुआ करता था। अब यह टहनियां पानी तो बालकनी के अंदर गमलों के गंथे अपने जड़ों से ही लेती हैं लेकिन हवाएं और रोशनी बाहर की हैं कुल मिलाकर अब ये न तो पूरे तरीके से बाहरी चीजों पर निर्भर हैं और न ही अंदर की चीजों पर। कोई इन्हें खींच कर अंदर लाए तो इसमें लगे सारे पत्ते-पत्तियां टूट कर बाहर ही रह जाएंगी, कुछ भी अंदर नहीं आएगा। कुछ भी नहीं!

बाहर निकल गई टहनियों को अंदर कैसे लाया जाए!



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