मेरे दिल में खयाल आता है...
बीते कुछ सालों में ऐसा कई बार हुआ कि लगा कोई आगे चलकर एक-एक चीज बिगाड़ता जा रहा है। जैसे कि सुबह नींद नहीं खुलना और खुलने के बाद कोई ऐसा फोन आना कि मन का क्षुब्ध हो जाना। सामने मोबाईल का आना और फिर हाथ में मोबाईल लेते ही कुछ ऐसा देखना कि मन गहरे अवसाद से भर जाना। पानी आपूर्ति नहीं आना और खाना बनाते समय चीजों की कमी पड़ना, असमंजस में पड़े रहना और समय का बहुत रफ्तार से बढ़ना और फिर भाग-भाग कर ट्रेन पकड़ने के लिए जाना और फिर पता चलना कि ट्रेन कुछ मिनट से छूट गई और अगली वाली ट्रेन का देर से आना, खचाखच भरा होना और इसी बीच एक के बाद एक कई सारे फोन आना। दफ्तर में तनाव और वापस घर पहुंचकर पाना कि घर में तो नकारात्मकता का वास है।
न जाने कितने ही दिन घोर अवसाद में ऐसे बीते। समय से ऐसी निर्दयता दिखाई कि उन चीजों को दर्ज भी नहीं कर पाया किसी पन्ने या वेबपार्टल पर कि बाद में कभी खुद को यकीम दिलाया जाए कि ऐसा भी कभी घटित हुआ था!
गणपति और लक्ष्मी पूजन को लेकर मन उलझनों से भरा रहा। इतने कम समय में कैसे प्रसन्न किया जाए देवी-देवताओं को! न छुट्टी, न संसाधन, न ज्ञान और न कोई हेल्पिंग हैंड! अशांत मन की तो खैर अपनी ही दास्तां होती है। खैर!
20 अक्टूबर का दिन अजीब ही बीतने वाला था। दफ्तर में गहरी नींद के बाद जो मन में हल्कापन आया था उसे डीडी इंडिया असाइनमेंट के फोन ने फीका कर दिया। सवा छह बजे दफ्तर से निकलने का जो सोचा था वह मुश्किल लगने लगा था क्योंकि लगातार साढे सात, आठ और नौ में लाईव था दीपावली पर। बात इतनी हालांकि बन गई कि लाईव मोबाईल से दिया जा सकता है। मृणाल से मदद मांगी और उससे कहा कि कोई अच्छी जगह खोज कर रखे जहां लाईटिंग हो। कामोठे में तो वैसी कोई रौनक थी नहीं, पनवेल लेक के पास उसने एक जगह ढूंढ निकाली। वहां पहुंचना हुआ और लाईव भी हुआ। कुल मिलाकर जितना सोचा था उससे बहुत अच्छा।
खैर, जो हुआ उससे अच्छा होना बाकी था। रात को करीब सवा दस बजे तक डरते हुए होटल में खाया। डर इसलिए क्योंकि अगले दिन सुबह यानि कि आज मुंबई पुलिस झंडा दिवस पर दादर पहुंचना था। सुबह के साढ़े सात बजे। यानि कि मुझे सवेरे छह बजे ट्रेन में होना था, पांच बजे बाथरूम में और साढे चार बजे अपने दोनों पैरों पर। खाकर कमरे पर आया तो भाग्य से फोन पर बात होने लगी। सोते हुए पौने एक बज गये और चिंता में मन डूब गया कि कल क्या होगा। दो-तीन बार मन में आया कि सर को मैसेज डाल दूं कि मैं सुबह देर से आऊंगा और कैमरामैन को ब्रीफ कर देता हूं। बार-बार रूक गया और आखिरकार मैसेज नहीं किया। दोनों मोबाईल पास की कुर्सी पर रखकर उसमें सवा चार का अलार्म लगा दिया। सुबह को लेकर मन में तरह-तरह की आशंकाएं जन्म ले रही थी।
ये क्या! सुबह करीब चार बजकर तेरह मिनट पर नींद खुल गई। लेकिन अलार्म तो बजा ही नहीं। और नींद ऐसी नहीं खुली कि लगे और सोना बाकी है। ऐसा लग रहा था कि पर्याप्त नींद पूरी हो चुकी। पानी रात में ही गर्म करके थर्मस में रख चुका था। एक कप नींबू वाली चाय भी बना ली। सब हो गया। अरे घड़ी तो आज धीरे-धीरे चल रही है। कभी-कभी तो लगता है कि कोई राक्षस वहां बैठकर कांटों को तेजी से घुमा रहा है। आज क्या हो गया! शांति से सब चला। स्टेशन पर पहुंचा तो गाड़ी आई। जादू तो तब हुआ जब कुर्ला में सात बजकर दो मिनट पर आने वाली गाड़ी एकदम समय पर आई। मुझे याद नहीं कि कुर्ला में कभी भी गाड़ी समय पर आई होगी। आज कुछ तो था, जो घटित हो रहा था। इधर परेल उतरा और प्रभादेवी पर विजय गाड़ी लेकर तैयार था। सात बजकर कुछ मिनट पर मैं ऑफिस। एसी प्लांट वाले ने लाईवयू दिया। वाह! यहां तो जरा भी समय नहीं लगा। पुलिस ग्राऊंड में गया तो न ऑफिस का आईकार्ड था और न ही एक्रीडेशन, फिर भी उस महिला पुलिस अधिकारी ने देखा और जाने दिया। उधर मैं पहुंचा थोड़ी देर में मुख्यमंत्री आ गये। कार्यक्रम तुरंत शुरू हुआ और तुरंत खत्म। इतना अच्छा से ये सब कैसे हुआ! सबसे पहले तो मुझे यकीन ही नहीं आ रहा कि मैं सुबह अलार्म बजने से पहले ही उठ गया और फ्रेश होने में भी कोई दिक्कत नहीं हुई।
इधर दफ्तर आया तो वहां भी अच्छा ही अच्छा होता गया। सर का उस वक्त कमरे में आना जब डी वाई चंद्रचूड का इंटरव्यू देख रहा था। थोड़ी ही देर पहले मैं गाने सुन रहा था, उस वक्त तो सर नहीं आए। ऐसे समय में आए जब मैं इंटरव्यू यानि कि न्यूज से जुड़े काम ही कर रहा था।
गणेश और लक्ष्मी की कृपा तो है।
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