परसों अमित का दो बार फोन आया। मुझे लगा पैसों के लेन-देन की बात होगी लेकिन उसने बताया कि राकेश के पापा नहीं रहे। अवाक् रह जाने जैसा अब कुछ होता नहीं लेकिन हां थोड़ी देर के लिए लगा कि बुरा हुआ। त्यौहारों के बीच इस तरह एक शांत स्वभाव के आदमी का चले जाना घर ही नहीं आसपास के वातावरण को भी उत्साहहीन कर देता है।
गली में उनकी एक अपनी धारा थी। वह मिलनसार नहीं थे और किसी से भी मिलते या बातचीत करते उन्हें शायद ही कभी किसी ने देखा हो। वह अपनी ही धुन में रहते थे। समाज में उनकी कोई पहचान भी नहीं थी और न कभी किसी को उनके घर आते-जाते देखा गया था। मूलरूप में खरीक का भूमिहार परिवार था और गली-मुहल्लों में सक्रिय नहीं था। छोटे घर से बड़े घर तक सब आंखों के सामने हुआ था। उनसे मेरी कभी कोई लंबी या गहरी बातचीत तो नहीं हुई लेकिन हां होली में उनके यहां जाना होता था और उनके पैर पर अबीर दिया था मैंने। एक बार कुछ सालों पहले उन्होंने बात भी की थी फोन पर। वह आईजी का नंबर मांग रहे थे। पप्पू को पुलिस ने किसी मामले में पकड़ा था। इससे इतना तो पता चला कि उनके अंदर आत्मविश्वास था लेकिन उनके व्यक्तित्व का आकलन कोई नहीं कर सकता क्योंकि वह बहुत ही ज्यादा सीमित थे। रिजर्व।
बाद में मैंने राकेश से भी बात करने की कोशिश की लेकिन फोन नहीं उठा। उसकी अपनी व्यस्तता होगी।
बहरहाल, उनके जाने से दुख इसलिए भी हुआ क्योंकि मुन्नूजी प्रकरण के बाद जो घर की हालत हुई और समाज में जो जिल्लत पूरे घर और समाज में हमलोगों का हुआ, उस दौरान वह हमेशा वस्तुनिष्ठ रहे जिसे ऐसा माना जाए कि वे हमारे पक्ष में ही रहे।
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