Saturday, March 30, 2024

बाल्मिकी चाचा

 

                                             अपने करम का फल पा गये

बाल्मिकी चाचा नहीं रहे। पापाजी ने जब बताया तो सबसे पहले मैंने यही उनसे पूछा कि तबियत तो ठीक ही रहती थी न उनकी! जवाब जैसा मैं चाहता था वैसा ही मिला। पापाजी ने बताया कि रात करीब आठ बजे कुर्सी पर बैठे और फिर निर्जीव हो गये। मन को शांति मिली। उस पूरे दिन मैं अंदर से प्रसन्न था। संतोष का एक भाव मन में आ रहा था कि बाल्मिकी चाचा को किसी तरह का कष्ट नहीं हुआ जाते समय। याद नहीं है कि कभी परमोद भैया या पापाजी के मुंह से सुना हो कि उनकी तबियत कभी खराब हुई! 

चार साल पहले उनसे आखिरी मुलाकात हुई। परमोद भैया से दुकान पर ही बातचीत के दौरान मालूम चला था कि चाची की तबियत खराब है। शायद कैंसर की बात थी! जब मैं परमोद भैया के बच्चों को पढ़ाता था तो चाची का व्यवहार मातृतुल्य था। पुराने फिल्मों की मांएं जैसी वह व्यवहार करती थीं। घर में गाय बंधी होती थी और माहौल बड़ा सुकूनदायक लगता था। जब परमोद भैया से उनके बारे में पता चला तो मैंने उनको बोलकर उसी समय रतनपुर जाने का निर्णय किया। इतिहास में मैंने जाने-अनजाने इतनी गलतियां की हैं कि अब किसी चीज में देरी का जोखिम नहीं लेता हूं। बात में क्या पता मिलना हो न हो! वहां गया तो बाल्मिली चाचा को जिस तरह उनकी सेवा करते देखा मन वहीं रम गया। पति-पत्नी एक साथ क्या-क्या देखते हैं! दोनों अपनी शादी देखते हैं, शादी के बाद का नया संसार, बच्चे, बढ़ता परिवार, परिवार में तनाव, तनाव के बीच का अपनापन, रिश्तों का विस्तार, सुख-दुख के अनगिनत अहसास, त्यौहार, शांति-सन्नाटा और कितना कुछ दोनों देखते-देखते बुढ़े होते हैं। बुढ़ापे में दोनों एक-दूसरे के लिए एकमात्र भरोसेमंद सहारा बनते दिखते हैं तो मन करता है कि दोनों को देखते ही रहा जाए। जब मैंने बाल्मिकी चाचा को देखा था तो वह चाची का पैखाना बाल्टी में लेकर फेंक रहे थे। बाचतीच में वह बार-बार गुरू महाराज का नाम लेते थे और उनपर ही सबकुछ छोड़ दिया है ऐसा उन्होंने कहा था।

यह संयोग ही है कि होली में जब मैं सेवई बना रहा था और सोचा कि छुहारा भी काटकर डाल दूं तो मुझे बड़ी दिक्कत हुई। दरअसल छुहारा चाकू से नहीं कट रहा था। हाथ में छुहारा लेकर मुझे बाल्मिकी चाचा की तब याद आई थी। अपने दुकान के सामने चौंकी लगा कर चाचा छुहारा को एक छोटे से दो-तरफी चाकू से काटते थे और कट्टुक बनाते थे। परमोद भैया और चाचा मिलकर तब दुकान चलाते थे और तब वहां रौनक होती थी। उस वक्त को बीते डेढ़ दशक से अधिक हो गये। अब तो परमोद भैया के भी पूरे बाल पक चुके हैं। बाल्मिकी चाचा का जब ख्याल खाया था तो सोचा था कि एक बार परमोद भैया से बात करके उनका हालचाल लूंगा लेकिन इतनी व्यस्तता में कहां हो पाया वैसा! 

बाल्मिकी चाचा के शांतिपूर्ण प्रस्थान ने मन को बहुत सुकून और शांति दी। पापाजी भी बता रहे थे कि पानी तक किसी के हाथ से पीने की नौबत नहीं आई। पापाजी और उनकी करीब तीन दशक की दोस्ती थी। कहने का दुकानदार और खरीदार का रिश्ता था लेकिन बाल्मिकी चाचा और परमोद भैया का हमारे घर से जो रिश्ता रहा है उसे बस खरीदार-दुकानदार तक सीमित नहीं कहा जा सकता है। पापाजी तो परमोद भैया को एटीएम कहते हैं और जिस तरह परमोद भैया ने घर को अति प्रतिकूल समय में भी समय और पैसे से मदद की है, वैसा उदाहरण अपवाद ही है।

आह! ईश्वर बाल्मिकी चाचा और चाची की आत्मा को सद्गति दे!

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