उजाला
कुछ तो था जो संयोग से अलग था। भूटान के प्रधानमंत्री का मुंबई आगमन होने के बावजूद शनिवार को उनका कोई कार्यक्रम नहीं रखा गया और कार्यक्रम रविवार को रखा गया। इससे बहले गुरूवार को लॉ कॉलेज से एक अप्रत्याशित का फोन आया था कि मूट पार्लियामेंट में मुझे बतौर जज आमंत्रित किया जा रहा है।
जब ग्लास छूने से गिरकर टूट जाए और ऐसा बार-बार हो तो यह मान लेना चाहिए कि समय बुरा चल रहा है और कोशिश यही करना चाहिए कि प्यासा रह लिया जाए लेकिन पानी के ग्लास को हाथ न लगाया जाए। जिस प्रतिकूल समय से सबकुछ गुजर रहा है वहां अतिरिक्त सतर्कता बरतने की आदत सी हो गई है। बावजूद उसके लॉ कॉलेज के उस आमंत्रण को अंत तक नजरअंदाज करने के बाद भी मैं तय समय पर कॉलेज पहुंच गया।
कॉलेज में काफी कुछ बदल गया था। कभी-कभी तो पूरी जिंदगी ही सपने जैसे लगती है। जिस ऑटो से वहां पहुंचा वह ऑटो वाला बहुत शरीफ आदमी लगा। पहला अनुभव अच्छा मिलने पर आत्मविश्वास बढ़ जाता है। इसके बाद कॉलेज के गेट से अंदर गया तो वहां के सिक्यूरिटी गार्ड ने भी टोका नहीं और जाने दिया। ये दो छोटी घटनाओं ने मन को शांत रखा। पहले से विचलित मन की हालत ऐसी हो गई है कि किसी की कही कुछ भी बात कितनी भी बुरी लग जाती है। बोलना करीब-करीब बंद ही कर दिया है मैंने किसी से, फिर भी रोजाना कितना आत्मसंयम बरता जाए!
थोड़ा आगे चलने पर कॉलेज के कंपाउंड में दो-तीन छात्र काले कोर्ट में रिसीव करने आ गये। साथ में एक फैकल्टी भी आई। लिफ्ट को रोककर रखा गया था। ऊपर आया तो तीन अतिथि खड़े हो गये। ये सब मेरी आंखों के सामने हो रहा था और मैं शांत था। कमरा सहजता से भरा हुआ था। एसी के कारण भी और कपड़ों के कारण भी। सफेद कपड़े आमतौर पर माहौल को शांत रखते हैं। थोड़ी देर बातचीत हुई। मुझे लगा नहीं था कि मेरी कही जा रही बातों में लोग वहां इतनी दिलचस्पी लेंगे। बात हुई तो सब मुझे सुनते रहे। मैं भी उन्हें सुनता रहा। बात का वजन महसूस हुआ मुझे और लगा कि मेरी कही गई बातों को बहुत गंभीरता से सुना जा रहा है। खाना परोसा गया। मुझे सबसे पहले लेने को बोला गया। खाकर फिर बात चली। थोड़ी देर बाद हॉल में आमंत्रित किया गया जहां मूट पार्लियामेंट हो रहा था।
यूनिफॉर्म में लॉ कॉलेज के बच्चे। छात्र और छात्राएं। हॉल की शांति। मंच पर मेरा आना। ताली बजना। मेरा नेमप्लेट लगा होना और वहां पर मेरा बैठना। मेरी उपलब्धियों को एंकर द्वारा बताना और ऑडिएंस में ताली बजना। ये सब मेरी आंखों के सामने हो रहा था। मैं यह देख रहा था कि लोग मुझे सम्मान की नजर से देख रहे हैं। यूपीएससी-आईआईएस, बीपीएससी-डीपीआरओ, जेएनयू-पीआरओ सहित हाल में कई परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होने के बाद ये सब देखना मन में ऐसे भाव पैदा करता है कि मैं यहां लिख नहीं सकता।
कार्यक्रम शुरू हुआ। बच्चों अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे थे और मेरे सामने एक चार्ट पेपर था जिसपर मुझे उन्हें नंबर देने थे। सबकुछ होने के बाद मुझे मंच पर बोलने के लिए बुलाया गया। मैंने उतना अच्छा पहले कब कहां बोला था याद नहीं आ रहा। कुछ संदर्भ दिए मैंने, कोशिश की कि मृदु बना रहूं और शांति से दोस्ताना शैली में शब्दों के चयन में अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए मैंने करीब बीस मिनट की बात कही। न हड़बड़ाहट, न आत्मविश्वास की कमी और न ही कुछ भूलवश कहा गया शब्द! कुल मिलाकर मैं अपने कहे पर इतना संतुष्ट था कि सामने वाले की आंखों में मैंने अपने आंखों की चमक देखी।
सबकुछ खत्म हुआ तो मुझे कॉलेज घुमाने के लिए ले जाया गया। इसका सीधा सा एक मतलब यह था कि वहां सबलोगों को मेरा साथ अच्छा लग रहा था। मैं भी जल्दबाजी में नहीं था। दरअसल मैं वहां था ही नहीं। शायद मां सरस्वती मेरे अंदर कुछ समय के लिए आई थी और मुझे इज्जत दिला रही थी। मैं अकेला तन्हाई में जीने की आदत डाल लेने वाली आदमी भली लोगों से कैसे सहजता के साथ बात कर पा रहा था यह मेरी समझ से परे है।
कॉलेज से निकलते ही सामने ऑटो दिखी। मैंने ऑटो लिया और कुर्ला आ गया। वहां से ट्रेन ली और मानसरोबर स्टेशन उतर कर कामोठे आ गया।
शनिवार का यह दिन यादगार रहेगा।
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