Saturday, February 24, 2024

फर्स्ट एसी का वह सपना


                                                      जो पूरा हुआ...

फर्स्ट एसी को लेकर एक दौर में धारणा यह थी कि यह अपने लिए नहीं है। स्लिपर को लेकर भी एक ऐसा ही दौर बीता था। बेगूसराय स्टेशन से होते हुए ढेर सारी ट्रेनें गुजरती हैं। लंबी दूरी की भी और छोटी दूरी की भी। बेगूसराय से बरौनी और कटिहार के लिए अक्सर पैसेंजर ट्रेन यानि सवारी गाड़ी से यात्रा करते हुए बहुत समय बीते हैं। सवारी गाड़ी पापाजी की पसंद होती थी। निम्न मध्यवर्गीय परिवार जिसमें जवाबदेहियां ज्यादा हो, ऐसे ही चलाई जाती है।

बहरहाल, सबसे पहले दिल्ली के लिए जो ट्रेन पकड़ी थी वह थी वैशाली एक्सप्रेस। अगर सही-सही याद आ रहा है तो यही वह ट्रेन थी जिससे मैं सबसे पहले दिल्ली आया था। कभी-कभी लगता है शायद पटना से गरीब रथ थी या कोई और। लेकिन स्लीपर में पहली बार अकेले सफर करने का उत्साह उस वैशाली में मिला था जिसे मैं बरौनी में साढे नौ बजे पकड़ा था। यहां मेरी स्मृति बिल्कुल धोखा नहीं खा रही है। स्लीपर का वह अनुभव बहुत खास था। मुझे अभी भी याद है कि साइड लोअर का बर्थ था और मैंने पैर लंबा करके बैठते हुए खिड़की से लहलहाते फसलों और बाहर की दुनिया तो देखते हुए सोचा था कि काश यह सफर कभी खत्म न हो!

एसी को लेकर ऐसा कोई अनुभव याद नहीं है जब खुद को अपग्रेड करने का एहसास हुआ हो। दिल्ली से मुंबई आते वक्त 2014 में शायद राजधानी या गरीब रथ ली थी मैंने जो परिस्थितिवश था। परिस्थितिवश की गई चीजें अनुभव में वह चमक नहीं ला पाती जो शौक लाती है। हां इतना जरूर याद है कि जब मुंबई दफ्तर से किसी दूसरे शहर जाना होता था तो एक बार बूकिंग के वक्त ऑफिस से पता चला था कि दफ्तर की ओर से मुझे एसी किराया भुगतान किया जाएगा। मुझे लगता है उसके बाद से मैंने शायद कभी स्लीपर में यात्रा नहीं की। हालांकि कुछ आपात या विशेष परिस्थितियों में स्लीपर में यात्रा की मैंने, जैसे मुंबई से बैंगलोर और शायद एक बार भाग्य के साथ मुंबई से बिहार। दोनों ही परिस्थितियां आपात थीं और एसी टिकट उपलब्ध नहीं था। मुंबई से बिहार जितनी बार जाना हुआ एसी में ही हुआ और कई बार तो हवाई यात्राएं की गई। यह भी दफ्तर के द्वारा ही दी गई सुविधा के उपरांत हो पाया था। जैसे ही सैलरी पचास हजार से ऊपर गई दफ्तर की ओर से हवाई यात्रा की सुविधा दे दी गई और फिर मुंबई से नागपुर, अहमदाबाद, नई दिल्ली, गुवाहाटी और पटना की हवाई यात्रा होती रही। हालांकि इन हवाई यात्राओं में कभी भी वह रोमांच वहीं था जो तब था जब मैंने कलकत्ता से नई दिल्ली की हवाई यात्रा, जो कि मेरी जिंदगी की पहली हवाई यात्रा थी, स्पाइस जेट सी 2009 में की थी।

खैर, बात फर्स्ट एसी की। 2005 या 2006 में पहली बार फर्स्ट क्लास (फर्स्ट एसी नहीं) कंपार्टमेंट को मैंने देखा था। भैया और भाभी उधमपुर से आ रहे थे और मुरादाबाद से बेगूसराय तक वह अवधअसम एक्सप्रेस में फर्स्ट क्लास में आए थे। सरकार के द्वारा यह सुविधा उनको एलटीसी के तौर पर दी गई थी। संयोग ऐसा बना था कि पूर्णिया से आए एक आपात कॉल की वजह से मुझे मां को लेकर तत्काल कटिहार निकलना था और बेगूसराय पर भैया और भाभी जिस डब्बे में उतरे मैं और मां उसी में चढ़ गए। भैया ने स्टाफ से बात कर ली थी और मुझे कुछ पैसे दे दिए थे। तब उस डब्बे में बने कमरानुमा कंपार्टमेंट में एसी नहीं थी लेकिन उसे अंदर से बंद किया जा सकता था। इसके बाद मैंने कभी वैसा डब्बा नहीं देखा। पिछले दिनों भैया से बातचीत में पता चला कि अब वैसा डिब्बा प्रचलन से बाहर कर दिया गया है। खैर!

इसी तरह भगवान बाबू के साथ सफर करते हुए एक बार फर्स्ट एसी को अंदर से देखने का मौका मिला था। पिछले दिनों भाग्य के भैया के साथ यात्रा करते हुए भी कुछ समय उस डब्बे में बिताने का मौका मिला था लेकिन सच ये था कि मैं उस समय की प्रतीक्षा में था जब मैं अकेले इस डब्बे में राजा की तरह यात्रा करूंगा। बाद में धीरे-धीरे पता करने के बाद मालूम चला कि इसमें एक यात्री के लिए निजता जैसी कोई बात नहीं होती है क्यूोंकि कूप और केबिन का कंसेप्ट यहां लगता है। कूप में दो और केविन में चार लोग यात्रा करते हैं। इसका सीधा सा मतलब यह था कि अगल मैंने टिकट ले भी लिया तो मुझे किसी अनजान के साथ यात्र करनी होगी वह भी एक बंद कमरे में, जो कि निहायत ही बेकार आईडिया था। यह आईडिया तब अच्छा होता जब मैं अपनी पत्नी या परिवार के किसी सदस्य के साथ उस यात्रा को करता।

खैर! समय से पहले कुछ कहां होता है! और समय जब आ जाए तो कुछ कहां टल पाता है!

24 फरवरी को पटना से मुंबई सपरिवार आना था। भाग्य की पक्की सरकारी नौकरी होने के बाद वह पहली बार मुंबई आ रही थी। हमने पूर्णियां में जमीन भी ले ली थी। परिवार में भी सबकुछ शांत था और दफ्तर का तनाव भी सामान्य से कम था। बच्चे इतनी उम्र छू सके थे कि उनके लिए टिकट लेने की आवश्यकता नहीं थी। कुल मिलाकर सारी स्थितियां अनुकूल थीं तो 13201 में मैंने एसी फर्स्ट क्लास की दो कूप टिकट ले ली। 

यह यात्रा इतनी शानदार रही जितनी किसी शायर की चांदनी रात में भरी महफिल में गाई हुई वह गजल होती है जिसे सुनकर पूरा महफिल काफी देर तक तालियां बजाते हुए अगली गजल की फरमाईश करता है। अब बस उस मौके के इंतजार में हूं कि फिर वह मौका कब आए और फिर उस अनुभव को कब दोहरा सकूं!


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कुछ यादें...














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