Friday, October 20, 2023

चीख

                                                                 चरम

चीख-पुकार मच रहे एक घर की तरफ कोई देखकर थोड़ा ढाढस बढ़ा देता तो कितनी बड़ी राहत मिलती उस छोटे से परिवार को। घोर चिंता में डूबे इस परिवार में फर्श पर आंसू पसरे हुए हैं। बड़े मुस्कुराना तक भूल चुके हैं और बच्चों को समझ में नहीं आ रहा है कि उनके चारों तरफ चल क्या रहा है।

परिजन-मित्र-सहकर्मी किन्हीं से कोई बात नहीं की जा सकती। कभी-कभी लगता है कि बांटा जाए इस दौर की इन आंधियों को लेकिन फिर मन सहम जाता है यह सोचकर कि उसके बाद क्या होगा। अपनी जवाबदेहियां सब को खुद ही निभानी होती है - हंसकर, रोकर।

कुछ दवाइयां दुकान से घर तक इसलिए नहीं आ पाई क्योंकि उनके लिए रुपये बचे ही नहीं। चीजें एक के बाद एक करके यूं दूर जाती दिखती है जैसे गोद से कोई नवजात को छीनकर ले जा रहा हो। हक, अधिकार, अपना जैसा कुछ भी नहीं रहा, ऐसा लगता है।

घोर निराशा और अवसाद के इस दौर को लिखना आसान नहीं है। जहां साल में दो-चार बड़ी घटनाएं हुआ करती हैं वहां इस दौर में हर पहर दो-तीन घटनाएं ऐसी हो रही हैं जो अंदर तक झकझोर दे रही हैं। हार, अपमान, दुत्कार...

खैर, परिवार की परीक्षा की इस घड़ी को सहेजना भी जरूरी है। जरूरी है यह दर्ज करना कि दफ्तर से आते हुए मैं सीधा अस्पताल गया और आपातकालीन स्थिति में एक के बाद एक, दो सुई लगी मुझे। बौराया सा मैं करीब एक घंटे के बाद दबे पांव अस्पताल से निकला। रास्ते भर सोचता रहा कि बजरंगी की पूजा ब्रह्म मुहूर्त में करने का संकल्प पता नहीं कैसे सधेगा काश भाग्य सधा देती। चलते-चलते बस और फिर ट्रेन पर आने वाला था कि प्लेटफार्म पर चढ़ते हुए भाग्य का फोन आया कि मैं आपका पूजा पूरा कर दूंगी, आप पहले अपना तबियत ठीक करिए। ऐसा लगा कि बजरंगी भाग्य की आवाज में बोल रहे हैं। ईश्वर भाग्य के ऊपर से मेरी बदकिस्मती की छाया हटा लें और उसे सारी खुशियां दे।

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