Sunday, July 10, 2022

एकला चलो रे

                                                            गाथा

एक दशक के ज्यादा समय तक चले इस दौर के बारे में सबकुछ लिख देना असंभव-सा है। 

शीशम के छोटे-छोटे पत्तों को आंगन में बुहार कर इकट्ठा करने से लेकर उसी शीशम के वृक्षों को काटकर काठ बनाने से लेकर उन जगहों पर शादी के पंडाल के लिए बांस गाड़ देने तक की गाथा ऐसी है जैसी कि कोई दास्तानों की श्रृंखला हो जिसे सलीके से सजाया जाना बाकी हो!

करीब उन्नीस साल पहले का जो अप्रैल का महीना जिस घर के लिए सदमे से भरा रहा, उस घर में इस साल का जून एक बड़ी उम्मीद लेकर आया। एक रिहाई कितने ही जटिल सवालों का सामना कर रहे एक बुजुर्ग दंपति को एक आस दे गई। उस आस को कहीं लिखा नहीं जा सकता, कहीं बोला नहीं जा सकता और कहीं अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।

अंत तक भी समय की क्रूरता वैसी ही बनी रही जैसे आरंभ में थी। प्रयागराज जो कभी इलाहाबाद था, वहां से सबकुछ समेट कर वापस लौटना भी आसानी से मयस्सर नहीं हो पाया। अग्निपथ योजना को लेकर रेलगाड़ियां का जलना, प्रदर्शन, हिंसा ये सब ऐसे समय हुआ जब एक दंपति आस लेकर वापस उस जगह जाना चाह रहा था जहां सालों से उस दंपति ने अपना सबकुछ एक-एक कर खो दिया था।

उन आखिरी टिकटों में से एक जो कैंसिल तो हो गई लेकिन रिफंड नहीं हो पाया!




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