Saturday, July 16, 2022

न उगली ही जाए, न निगली ही जाए

                                                          ये काली जहरीली रात!

जिस तरह कुछ घटनाएं यादगार बन जाती हैं उसी तरह कुछ दिन-रात भी हरदम याद रहते हैं। ऐसी ही कुछ रातें जो बीत तो गईं लेकिन मन में यदा-कदा बीतती रहती हैं, को संग्रहित करने का कई बार मन करता है। हालांकि यह आसान नहीं है क्योंकि अचानक ही वैसी सभी रातों का दिमाग में एक जगह जमा हो जाना नहीं हो पाता तो बेहतर है कि जो याद है उसे लिख लिया जाए और जो समय-समय पर याद आता रहे उससे इस पोस्ट को समय-समय पर विस्तार दिया जाए।


16 जून 2005 

जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटित हो जाती हैं जो आपके होने को प्रासंगिक बना देती है। बेगूसराय से करीब पच्चीस किलोमीटर दूर इनय्या में उस रात जो कुछ हुआ वह एक चमत्कार जैसा था। स्थानीय लोगों ने खाई में गिरे एक बुजुर्ग साइकिल सवार को उठाकर प्राथमिक चिकित्सा सहित उनकी हर संभव देखभाल का जो काम किया था वह अद्भुत था। 

तब बिहार में शराब प्रतिबंधित नहीं हुआ था। देर शाम गांव-देहात में शराब पीकर डगमगाते हुए चलना या फिर पीकर गाड़ी चलाना आम बात है। ऐसे माहौल के बीच भी जब गांव वालों ने एक बुजुर्ग को साइकिल चलाते हुए लड़खड़ाकर गिरता हुआ देखा तो बजाय नजरअंदाज करने के, वे उन्हें संभालते हुए उठाए। उनकी साइकिल को एक तरफ किया और उस आदमी को तत्काल सभी उपलब्ध चिकित्सकीय सेवाएं मुहय्या करवाई।

देर शाम लोहियानगर के एक घर में रखा लैंडलाईन फोन बजा। जिस घर में फोन बजा उस घर में बीते दो सालों से अजीब सा मातम मन रहा था। फोन करने वाला इन सब बातों से अनभिज्ञ था। उसे बस एक बेसुध बड़े बुजुर्ग आदमी के जेब में पड़े कतरनों में वह नंबर मिला था और उस नंबर पर इत्तला करना सही समझा।

धैर्य से पूरी बात सुनने के बाद घरेलू औपचारिकता निपटा कर जिस दरवाजे पर अपन ने पहली दस्तक थी वह सुजीत का घर था। सुजीत तत्काल चलने के लिए तैयार हुआ। सवाल था रात में पच्चीस किलोमीटर, वह भी सुदूर देहात में, जाया कैसे जाए! एक एक्युप्रेशर के डॉक्टर से मांगी गई स्कूटर की मदद ठुकरा दी गई थी। अब गाड़ी रिजर्व करके जाना ही एक चारा था, जिसके लिए रुपये लगने थे और जो रुपये पास में थे नहीं। 

कुल मिलाकर बस स्टैंड के पास खड़ी एम्बेस्डर कारों में से एक को मनाया गया कि वह मंझौल तक छोड़ दे। हमारे पास तब जितने रुपये थे उसमें वह वहां तक के लिए ही मान सका। करीब दस बजे मंझौल पहुंचकर मैं अपने एक दोस्त के दुकान पर भागा। अच्छी बात यह थी कि उसकी दुकान बंद नहीं हुई थी। गौतम ने अपनी एक साईकिल दे दी और साथ में इनय्या का पता भी बता दिया। कभी सुजीत तो कभी हम, बारी-बारी से साईकिल चलाते हुए गंढक नदी के बगल से होकर जाती सड़कों पर तेजी से भागे जा रहे थे। घुप्प अंधेरे में साईकिल कई बार गड्डों पर पड़ती तो गिरते-गिरते बचती। बांध के उस ओर बहती बूढी गंडक और इस ओर चल रही साइकिल और बांध पर आधा दर्जन लोगों के चलने का अहसास घिघ्घी बांध रहा था। अपराध का अड्डा था वह एरिया जहां से साइकिल गुजर रही थी। आखिरकार गिरते-पड़ते साइकिल उस भीड़ के बीच पहुंच गई जहां

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