Sunday, May 15, 2022

कतरा-कतरा

                                                               खट्टा-मीठा 

उस घटना को आज दो साल बीत गए। चिलचिलाती धूप में कई किलोमीटर का सफर स्कूटी पर करते हुए घर जाने के क्रम में जो उस दोपहर घटित हुआ था वह आज भी कभी-कभी याद आ जाता है। 

अंटोप हिल। यह मेरे लिए मुंबई में ऐसा नाम था जिसको लेकर कितनी ही कहानियां बनी थी। घाटकोपर के बाद मुंबई में यह दूसरा और तीसरा ठिकाना था। तीसरा भी नहीं चौथा शायद। दरअसल यहां आते ही जिस कमरे में जाना हुआ वहां अजीब सो कोफ्त थी। असहजता इतनी कि वहां रहने की हिम्मत ही नहीं हुई। सरकारी क्वार्टर में दो गैस कनेक्शन का जो अलग लफड़ा था वो तो था ही बाकी वहां का माहौल घुटन वाला था। आधा सामान अंदर रखने के बाद भी वहां रहने की हिम्मत आखिरकार नहीं जुटा पाया और उल्टे पैर वापस हो गया। फिर दूसरा कमरा तय किया गया। दूसरे कमरे की भी स्थिति इतनी ही रही कि उसमें कुछ दिन रहकर लॉ के एक सेमेस्टर के लिए कुछ सवालों को तैयार कर लिया गया। और फिर भागीरथ प्रयत्न करने के बाद आखिरकार तीसरा सरकारी क्वार्टर मिल गया। अंटोप हिल सेक्टर पांच के एक बिल्डिंग में दूसरे तल पर।

यह कमरा भाग्यशाली साबित हुआ था और भाग्य का पहला कदम मुंबई में उसी कमरे में पड़ा था। पास ही करीब एक सात-आठ सौ मीटर पर सब्जियों का बड़ा बाजार लगता था जो कि रविवार को संडे-मार्केट में तब्दील हो जाता था। मैं भाग्य को लेकर स्कूटी पर जाता और गाड़ी भरकर सस्ती सब्जियां और फल ले आता था। बहुत ही सुनहरे दिन थे। जो दिन गरीबी में बीतते हैं वह उस समय के लिए तो कष्टकारी होते हैं लेकिन बाद में उन्हें याद करके लगता है कि वह वक्त नहीं होता तो जिंदगी में भला याद करने के लिए क्या ही रह जाता!

अंटॉप हिल

करीब चार साल बाद स्कूटी वापस उधर जाना हुआ था। उस दिन यूं ही मन हुआ कि आज लोकर न लेकर स्कूटी से ही ऑफिस चला जाए और चौवालीस किलोमीटर का सफर करने के बाद फिर वापस स्कूटी से लौटने की हिम्मत नहीं हुई थी। कल होकर जब वापस स्कूटी से घर जाने का समय हुआ तो मन अंटोप हिल को याद करने लगा। ठीक आठ किलोमीटर पर ऑफिस होता था। रास्ता मुझसे ज्यादा स्कूटी को याद था। अपने आप स्पीट ब्रेकर से पहले दोनों हाथ ब्रेक को दबा देते थे और अपनेआप ही नाना लाल मेहता फ्लाईओवर के नीचे आते ही हॉर्न बज जाता था। कौन सा सिग्नल कितने सैकंड तक लाल रहता है और कौन कब हरा होगा और किस तरफ से निकलना समय की बचत कराएगा यह सब गणित दिमाग में बैठ चुका था।

खैर! फाइव गार्डन होते हुए अंटॉप हिल पहुंचा और उसी सब्जी मंडी की ओर गाड़ी मुड़ गई जहां नई पत्नी के साथ कितने ही सुनहरे पल मैंने बिताए थे। सब्जी और फल खरीदते हुए हम दोनों एक दूसरे को समझते जा रहे थे, जिसे आमतौर पर अंडरस्टैंडिंग कहा जाता है। भाग्य बचत के पक्ष में रहती थी और मैं बेपरवाह खरीदारी करता। इस बार साथ में भाग्य नहीं थी तो खरीदारी में उतना मन नहीं लग रहा था। फिर भी, चार-पांच किलो नारंगी के अलावा बहुत सारी चीजें गाड़ी में भर लिया मैंने। मुंबई का तब मौसम ऐसा था कि एक फ्लाईओवर पर रेनकोन निकालना पड़े और अगले फ्लाईओवर पर शर्ट की बांह ऊपर करनी पड़े। गर्मी और बरसात के कॉकटेल वाले मौसम में सारी चीजें गाड़ी में डालने के बाद जब जगह कम पड़ने लगी तो डिक्की से रेनकोट निकालकर उसमें नारंगियां भरकर पीछे बांध दिया। दुनिया देख ले, जो चाहे बोल ले, फर्क किसे पड़ता है!

सब्जी मार्केट और अंटोप हिल की हवाओं को समेटते हुए स्कूटी सायन-पनवेल हाई-वे पर आई और कांटा साठ-सत्तर के बीच भागने लगा। कभी धूप तो कभी बादलों का आना-जाना आसमान में लगा हुआ था। चूंकि भीड़भाड़ ज्यादा नहीं थी तो गाड़ी कभी-कभी अस्सी भी चल जाती। मन खाली था सिवाय इस बात के कि स्कूटी के पीछे रेनकोट में नारंगियां बंधी हुई थी। वे नारंगियां महज नारंगियां नहीं थीं बल्कि अंटोप हिल की नारंगियां थी। भाग्य के साथ उन नारंगियों को खाते हुए अंटोप हिल की कहानियों में खो जाने का इरादा था। रास्ते में बीच-बीच में मैं लोगों से पूछकर तसल्ली कर लेता था कि स्कूटी के पीछे बैग लगा हुआ है।

बेलापुर डिवाइडर के आगे निकल जाने के बाद अचानक लगा कुछ गड़बड़ है। गाड़ी रोकी तो...

कहावत है जिसको जितना संभाल के रखिए उसका खो जाने की आशंका उतनी ही प्रबल होती है। पजेसिव एक टर्म है जो अक्सर पति-पत्नी के बीच उपयोग में लाई जाती है। जिस रैनकोट में अपन नारंगी कस के स्कूटी से ला रहे थे वह अब स्कूटी के पीछे नहीं था। यानि कि सिर्फ अंटोप हिल से भाग्य के लिए लाई जा रही नारंगी ही गायब नहीं थी बल्कि रैनकोट भी अब बस यादों में रह गया था। मन क्षुब्ध सा हो गया। एक पल में लगा कि वहीं बैठकर घंटों बिता दूं क्योंकि इस घटना ने जितना तनाव दिया था उसे रखते हुए हाई-वे पर बाकी बचे दस-बीस किलोमीटर की राइडिंग नहीं की जा सकती थी। आनन-फानन में जुनूनी दिमाग ने अपनी चला ली और आगे से यू-टर्न लेते हुए मैं गाड़ी वापस सायन की तरफ मोड़ दिया। करीब सात किलोमीटर उल्टी दिशा में आने के बाद सड़क की दूसरी ओर पिस चुकी नारंगियां दिखीं। वे महज नारंगियां नहीं थीं वह अंटॉप हिल की नारंगियां थीं जो भाग्य के लिए मैं लिये जा रहा था। 

आखिरकार वापस डिवाइडर से गाड़ी घुमाकर उस ओर आया जिस ओर नारंगियां अंतिम सांस ले रही थी। करीब पच्चीस गज तक नारंगियों के अंश पिसे हुए बिखरे थे और थोड़ा और आगे जाने पर एक कोने में चिथड़ा हो चुका रैनकोन भी उड़ रहा था। 

इस घटना को दो-तीन साल बीत गये। मैं आज भी उसी रैनकोन को उतने ही चाव से पहनता हूं जितना तब पहनता था जब भाग्य ने अमेजॉन से वह मेरे लिए ऑर्डर किया था। आठ जून, 2020 का वह दिन यादगार रहा।


बिखरी नारंगियां।                         सायन-पनवेल हाई-वे




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