Tuesday, May 10, 2022

पछतावा

                                                             अपराधबोध

अपने दिल से जानिए पराए दिल का हाल। कहने को तो यह एक आम पंक्ति है जो कि कई बार बातचीत में रंग भरने के लिए इस्तेमाल में लाई जाती है लेकिन जब दिल का हाल गहरे तक जा रहा हो तो उसके बारे में थोड़ी बात कर ली जाए तो क्या दिक्कत है!

मुंबई-पुणे एक्सप्रेस-वे पर सरपट भागती हुई कार में अकेला बोर हो चुका था। दुनियादारी की तमाम तरह की बातों के साथ दिमाग के अंदर पिछले कुछ दिनों से तलवारवाजी हो रही थी जो मन को बेहद अशांत किए हुए थी। ड्राइवर थोड़ा आलसी टाइप था शायद इसलिए गाड़ी में म्यूजिक की कोई गुंजाइश नहीं थी।पिछले दिनों जब उसके साथ सूरत गया था तब भी उसे कहा था कि गाड़ी में गाने-वाने का कुछ करो लेकिन शायद उसपर कोई असर नहीं हुआ। खैर! 

मोबाइल पर ट्विटर देख रहा था तो अचानक एक पेज दिखा जो किसी ने ट्विट किया था। जूम करके पढ़ा तो आंखे चमक गई। मुंबई की जानीमानी एसियाटिक ससाइटी ने अपने यहां न समा पाने वाली कई किताबों को बेहद सस्ती कीमतों पर लोगों को देने का फैसला किया था। दरअसल ससाइटी ने पहले देनदारों को अप्रोच किया था लेकिन बात शायद नहीं बन पाई और किताबें यूं ही व्यर्थ न हो जाएं इसलिए प्रशासन ने यह फैसला किया कि क्यूं न इसे सांकेतिक यानि कि टोकन मनी पर पुस्तकप्रेमियों को दे दिया जाए। 

किताबें यानि डिप्रेशन के खिलाफ सबसे बड़ा आजमाया हुआ हथियार। किताबें यानि सबसे भरोसेमंद दोस्त और किताबें यानि गुरू। निजी जिंदगी में जितनी भी आफतें आईं किताबों और डायरी ने उनसे लड़ने में बड़ा साथ दिया था। 

पांच तारीख को पुणे में एक कार्यक्रम के बाद मुंबई लौटना था लेकिन अगले ही दिन प्रधानमंत्री का एक और कार्यक्रम हो जाने के कारण छह तारीख को देर शाम मुंबई आना हो पाया। अगले दिन निर्मला सीतारमण का एक कार्यक्रम मुंबई में तय था और फिर उसके अगले दिन रविवार यानि मुंबई लॉकल ठप। 

सोमवार को एनआईए की ताबड़तोड़ छापेमारी मुंबई में हुई और भागमभाग में दिमाग में क्या समाया और क्या बाहर रह गया इसका हिसाब-किताब करने के लिए देर रात घर में स्टडी टेबल पर बैठा तो लगा बच्चों से उनका हक छीन रहा हूं। इस अपराधबोध में तन्वी और गन्नू को लेकर नीचे साइकिल चलवाने निकला। पार्क वगैरह घूमकर किसी बहाने मंगलवार को जब असाइनमेंट के लिए सत्र न्यायालय गया तो मौका पाकर चलते-चलते वहां से करीब डेढ किलोमीटर दूर कड़ी धूप से बेपरवाह मन में सपने संजोये एसियाटिक ससाइटी पहुंच गया। लगा कि आज डी-मार्ट की तरह खुलकर किताबों की शॉपिंग की जाएगी और तीन घंटे का मुंबई लोकल का सफर किताबों के पन्ने पलटते हुए गुजारा जाएगा। 

मन की उत्सुकता, संतुष्टि, उम्मीद चरम पर थी। सीढ़ियों पर चढ़ते हुए याद आया कि पिछले साल मां-पिताजी को घुमाने के लिए जब मुंबई बुलाया था तो इन सीढ़ियों पर उनकी कई सारी तस्वीरें मैंने ली थी। मुंबई घूमने वालों के लिए एसियाटिक ससाइटी की सीढ़ियों के कुछ खास मतलब होते हैं। देखा तो कभी नहीं लेकिन कई से सुना है कि बॉलीवुड की कई फिल्मों में एसियाटिक ससाइटी भी दिखता है। शूटिंग स्पॉट के तौर पर भी यह ससाइटी और इसकी सीढ़ियां जानी जाती है।

बहरहाल मुड़े हुए बाल में तपते हुए उन ऐतिहासिक सीढियों पर एक-एक कर चढ़ते हुए जब मुख्य दरवाजे पर पहुंचा तो मालूम चला कि सारी किताबें पहले ही दिन पाठकों ने बटोर लीं और एक भी किताब अब बाकी नहीं रहा। जिंदगी बड़े पछतावों से भरी पड़ी हो तो छोटे-मोटे पछतावे ज्यादा देर तक असर नहीं रखते।

नाउम्मीदी में भी उम्मीद की एक आखिरी किरण की तलाश में वहां मुख्य कुर्सी पर विराजे सज्जन से पूछ लिया कि क्या एक भी किताब नहीं बची! उत्तर जो उन्होंने दिया वह पोस्टर देखकर मालूम चल चुका था। मन न वापस न्यायालय जाने का कर रहा था और न हीं वहां आने का कर रहा था।  असमंजस की स्थिति में वहां काफी देर खड़े रहने के बाद ऐसा लगा कि थोड़ी देर बैठ ही लिया जाए। रजिस्टर में एंट्री करके अपने बैग में रखा इकीगाई निकाला और करीब बाकी के साठ पन्ने पढ़कर वहां आने को सार्थक करने का भरोसा खुद को दिला दिया। 

जिस तरह दाने-दाने पर होता है खाने वालों का नाम क्या पता उसी तरह किताब-किताब पर लिखा हो उसे हासिल करने वाले का नाम। यही सोचकर भारी मन से वापस सत्र न्यायालय की ओर शिथिल कदमों से बढ़ गया। 

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