Sunday, May 22, 2022

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                                                   तुम्हारे होने की गलतफहमी

बड़े शहर का अकेलापन अगर दोनों तरफ हो तो फिर करीब आने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। ऐसा ही तब हुआ था। तन्हाई उधर भी थी और इधर भी। सबकुछ अनुकूल लगना और आंखों के सामने सबकुछ हरा-भरा दिखने जैसा स्वाभाविक सा एहसास भी दोनों तरफ था। जो नहीं था वह थी गारंटी।

गोवा में बीता वह नया साल बाकी के सभी नए सालों से कई मामले में अलग था। नए साल का मैसेज वाट्सएप पर भरा हुआ था। कॉल, मैसेज और वाट्सएप के बीच मैं जिस जगह कुर्सी पर बैठा कुछ-कुछ लिखता जा रहा था वह 


एक सरकारी कुर्सी थी जो गोवा दूरदर्शन के अतिथिगृह में मेरे कमरे में रखी थी। दरवाजा खोलकर मैंने उसे किवाड़ के बीच लगा दिया था और वहीं जो भी मन में आ रहा था उसे लिखता जा रहा था। तन्हाई में कट रहे नए साल के पहले दिन मन में चीजों की कमी नहीं थी।

आदमी रहस्यमयी तरीके से खुद में कई बार बदलाव देखता है और कई बार वह इस बदलाव के सामने बेबस हो जाता है। बेबस मतलब यह कि वह चाहे तो भी वह इस बदलाव को घटित होने से नहीं रोक पाता है। ऐसा ही तब हो रहा था। कई मैसेज की तरह उसका भी मैसेज आया और जैसे बाकी मैसेज रहे और छूटे वैसे ही वह मैसेज भी आया-गया हो गया। 

जो गंभीरता चाहिए थी वह मैसेज से कहां मिल पाती!

फिर बात बढ़ी और मेरा मनोगत अवगत हो गया। अगले कुछ महीनों में चीजें छिन्न-भिन्न हो गई और यह धारणा पुष्ट हो गई कि बड़े शहर के अकेलेपन में भी विवेक से काम लिया जाए तो दुर्घटनाएं टल सकती है। 

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