Sunday, January 2, 2022

समाप्ति की ओर

 

                                                     बीच मझधार में!

रविवार स्तंभ को अधूरे में छोड़ना पड़ेगा ऐसा शुरू करते वक्त नहीं सोचा था। रविवार तक भी अपना नहीं हुआ!

ब्लॉग को जिलाए रखने और अपने लिए थोड़ा समय निकालने के लिए रविवार स्तंभ को शुरू करने का ख्याल आया था। विचार अच्छे थे और शुरुआती दिनों में इसपर अमल भी हो पा रहा था लेकिन धीरे-धीरे दफ्तर की भागमभाग इस तरह बढ़ी कि एक-दो रविवार ब्लॉग पर आना ही नहीं हो पाया। बाद में याद आता तो बहुत अफसोस होता कि इतना भर समय भी खुद के लिए नहीं निकाल पा रहा हूं। अधिकतर बार तो ऐसा हुआ कि रविवार को सिर्फ उपस्थिति के लिए ब्लॉग पर आकर दो-चार शब्द लिखकर उसे रविवार के लेबल में डालकर वापस अपने काम में लग गये।

सच में!

तीस के बाद की जिंदगी बहुत अलग होती है। पत्नी का जिंदगी में आना, आदमी की निजी जिंदगी को पूरी तरह बदल कर रख देता है और निजता को लेकर पजेसिव आदमी अपने आसपास की चीजों को असुविधाजनक पाता है।

पाश की वह कविता जिसमें उन्होंने एक जगह लिखा है कि सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना, बहुत अर्थपूर्ण है।

मीडिया की जिंदगी जीने लायक नहीं होती है। जो लोग जी रहे हैं, वह जी नहीं रहे बल्कि जीते हुए दिख रहे हैं। अनहद अकेलापन को जीना सोच पाने से ज्यादा कठिन है। इसी को जीने के एक जरिये के रूप में रविवार कॉलम की शुरुआत की गई थी लेकिन इसे जारी रखना दफ्तर और निजी जिंदगी की कशमकश इतना मुश्किल बना देगी यह सोचा नहीं था।


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