Saturday, December 25, 2021

शोकसभा

 

एक-एक कर गिनते जाने पर यही कुछ तेरह-चौदह लड़के होते हैं जो आसपास के कहे जा सकते हैं। कुछ गली के और कुछ मुहल्ले के और गलियों के। दिल्ली के लिए जब पहली रेल पकड़ी थी तबतक यह मालूम नहीं चल पाया कि इनसे फिर कभी मुलाकात नहीं हो पाएगी। जब दिल्ली से मुंबई के लिए रेलगाड़ी में सवार हुए तब भी नहीं ध्यान रहा कि ये लोग छूटते जा रहे हैं। आज जब मुंबई में करीब आठ साल और दिल्ली में चार साल काट लिए तो लगता है उन लड़कों के साथ कम से कम आखिरी बार इस जानकारी के साथ मिल लेते कि अब आगे शायद ही कभी मुलाकात हो तो कितना सुकूनदायक होता!

बचपन नादान होता है। वह न पद जानता है न पैसा, न जाति जानता है और न रूतबा! कभी-कभी लगता है कि क्या जिस तरह की यादें मुझे घेर लेती हैं बाकियों को भी घेरती होंगी!

क्या उन लड़कों को मेरी जरा-सी भी याद आत होगी जैसे मुझे कभी-कभार उनकी आती है!

No comments:

Post a Comment