मुहल्ले की तब की बातें याद करते हुए आज भी लगता है कि सब वैसा ही है। मन यहा मानने को तैयार ही नहीं होता कि अब न उस गली में खेलने वाले हमउम्र के लड़के हैं और न हीं शाम में वहां अब गली कि लड़कियां इस कोेेने से उस कोने तक चक्कर लगाती दिखती हैं। न तो अब वहां घरों में कोई गतिविधियां हैं और न ही गली में रिक्शा आते ही सबके घरों से झांकने के दृश्य अब वहां हैं!
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