Sunday, December 6, 2020

जब हम वहां थे...

चालीस डब्बों का वह दौर

मुहल्ले में तब न तो इतने मकान थे और न इतनी व्यस्तता!

छत की रेलिंग नहीं बनी थी और सीढ़ी के किनारे पर ईंट चौंककर उसे घेरा गया था। ईंट के इस तरह के कई काम तब घर में हुए थे। बगीचे में टेढ़ी ईंटे सजाकर उसे खूबसूरत बनाना, चौंकी के नीचे ईंटों को रखकर उसे ऊंचा करना जैसे कई काम खुदरा ईंटों से हुए थे। खैर!

आज इतने सालों बाद उस दौर को याद करके मन करता है एक बार फिर से वहां लौटने का। लौट कर फिर से छत पर जाकर ट्रेन के डब्बे को गिनने का और चालीस पूरा होने पर फिर से उतना ही संतुष्ट होने का जितना तब हुआ करता था। बच्चों को गिनती सिखाने में रेल के डब्बों का बड़ा महत्व होता है उन जगहों पर जहां से ट्रेन गुजरती हैं।

आज भी बेगूसराय जाता हूं तो छत पर से ट्रेन को जरूर देखता हूं। हालांकि पहले की तरह अब ट्रेन को देर तक देखना संभव नहीं हो पाता है लेकिन ट्रेन को देखते हुए तब के दौर की कई चीजों को याद करते हुए मन भींगने लगता है। सामने गेहूं का खेत, ट्रेन के ऊपर लदे हुए लोग, पापाजी का कुर्ता, वह दूर एक खपड़े के मकान के किनारे में जलता हुआ सौ वाट का बल्ब, दीदी का नीचे से आवाज देकर बुलाना और मेरा छत पर एक ट्रेन के बाद दूसरे ट्रेन का इंतजार करना...!


मुंबई लोकल को देखती तन्वी


     आज ट्रेन की आवाज सुनकर जब तन्वी उत्सुक होकर उसे देखने की जिद करती है तो अपना वह दौर याद आ जाता है जब छत पर जाकर ट्रेन के पीछे अपनी आंखों को छोड़ आया करते थे। मुहल्ले की छत से ट्रेन बहुत दूर तक दिखाई पड़ जाती थी। एक गोला बनाते हुए ट्रेन का आते हुए देखना मन को रोमांचित करता था और लगता था कि एक बड़ी परिधि पर वह ट्रेन घर के चारों तरफ चक्कर काटती है। 

    तन्वी जहां से ट्रेन देखती है वहां से उसे मालगाड़ी या लंबी दूरी की ट्रेन नहीं दिखती है वरना उसे मालूम होता कि ट्रेन सिर्फ बारह डब्बे की नहीं चालीस डब्बे की भी होती है।

     क्या ऐसा हो सकता है कि तुम याद न आओ! मेरे अतीत, तुमसे बेहतर मुझे और कौन जान सकता है इस भरी दुनिया में। जो तुम आवाज दो तो शायद मैं तुम तक आ जाऊं। अभी नहीं तो तब जब यह सबकुछ खत्म हो जाए, न रहे कोई किरदार और न रहे कोई मंच और न ही घिरा रहूं मैं किसी उलझन में, तब किसी रोज जब देर रात कोई हवा चले और मैं उसमें घुल कर वापस तुमतक आ जाऊं और फिर हम बात करें उस सन्नाटे पर जो तब कितनी सुकूनदायक थी!
                                                                   
                                                                                                      दर-बदर...
 

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