कई बार कुछ ऐसा घटित होता है जो याद आकर सिहरन पैदा कर जाता है। ऐसी घटनाएं आम तौर पर भावनात्मक और कई बार प्रत्यक्ष भौतिक स्वरूप में भी घटित होती हैं। आमतौर पर कोई व्यक्ति अपमान को लंबे समय तक चाहकर भी नहीं भूल पाता है, वहीं दूसरी ओर भौतिक घटनाएं कई बार रह-रहकर आदमी के दिमाग में दुहराती रहती है।
मुंबई आए यही कोई एक-सवा साल हुए होंगे। पुणे में किसी असाइनमेंट को पूरा करके मुंबई लौटना था। समय और रुपये बचाने के लिए सबसे अच्छा यही हो सकता था कि बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन का झंझट छोड़कर दफ्तर आ रही ऑफिस की ओबी वैन में बैठकर ही मुंबई के लिए निकल लिया जाए।
शायद राष्ट्रपति का दौरा था किसी दीक्षांत समारोह में। समारोह लंबा चला और थकान इतनी हुई कि नींद-सी आ रही थी। ओबी में ड्राइवर और इंजीनियर के अलावा और कोई नहीं था, सो इंजीनियर को कहकर पीछे का गेट खुलवाया और वहीं लंबा हो गया। ओबी यानि डीएसएनजी की बनावट ऐसी थी कि किसी कार की तरह आगे की सीट पर दो लोग बैठ सकते थे और पीछे जीप की तरह पूरी जगह खाली होती थी जिसमें मशीन रहती थी जिससे डाटा को अपलिंक किया जाता था। अंदर ही एक बक्सा जैसा डब्बा था जिसमें पावर के लिए जेनरेटर रखा होता था,जब ओबी से कोई फीड भेजनी होती थी तो जेनरेटर के उस डब्बे को खींच कर गाड़ी के बाहर किया जाता था, बक्से के नीचे छोटे पहिए लगे होते थे जो इतना खिसक सकते थे कि जेनरेटर को गाड़ी से बाहर अटकाया जा सके। अंदर एक बैंच की तरह सीधा पतला सा सोफानुमा सीट था जिसपर तीन लोग बैठ सकते थे।
गाड़ी पुणे से निकली होगी और बामुश्किल पुणे-मुंबई एक्सप्रेस-वे पर अपनी रफ्तार ले रही होगी कि थका शरीर अंदर ही लुढक गया और नींद कब आई पता भी नहीं चला।
 
 
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