Sunday, November 8, 2020

समय से संवाद

                                                 दुर्घटनाओं का वो हसीन दौर!

वर्तमान में खड़े होकर अतीत को देखना हर उस आदमी की जीवनशैली का एक हिस्सा बन जाता है जो जीवन के आरोह-अवरोह के बीच अकेला अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है। 

अतीत के मानचित्र की कई रेखाएं इतनी गाढी होती है कि उसे अर्से बाद भी समय मिटा नहीं पाता और आदमी वर्तमान में खड़े होकर जब कभी अतीत में झांकता है तो वे रेखाएं उसकी ऊंगलियों को अपने ऊपर रखकर उसे उसकी पहचान बताती है। यह सब कभी डरावना तो कभी सुहावना होता है।

मैट्रिक-इंटर का दौर बेगूसराय का वह आखिरी दौर था जिसके बाद मन स्थायी रूप से बागी हो गया। घनघोर प्रतिस्पर्धा के उस दौर को याद करते हुए आज भी कई घटनाएं याद आ जाती है। किसी ने सही कहा है कि घटनाएं अच्छी हो या बुरी हो एक समय के बाद उसे याद करना अच्छा ही लगता है।

खैर!

बात उस रोज की जिसे याद करके आज भी चेहरे पर हंसी आ जाती है। 

बेगूसराय में जिन जगहों को तब इज्जत की नजर से देखा जाता था उनमें सर्वोदय नगर, विश्वनाथ नगर, प्रोफेसर कॉलोनी और टाउनशिप जैसे कुछ इलाके थे और जो मुहल्ले बदनाम थे उनमें लोहियानगर, पोखरिया, जागिर मुहल्ला, स्टेशन रोड वगैरह हुआ करते थे।

मैट्रिक और इंटर की पढ़ाई के दौरान ट्यूशन एक तरह से अनिवार्य हुआ करता था। तीन तरह की व्यवस्थाएं थीं। पहली जिसमें इंस्टीट्यूट जैसी एक संस्था हुआ करती थी जहां विषयवार शिक्षक बच्चों के बड़े समूह को पढाते थे। दूसरी व्यवस्था ऐसी थी जिसमें कोई एक शिक्षक बच्चों को अपने घर पर पढ़ाता था और तीसरी यह कि कोई शिक्षक किसी बच्चे को घर पर जाकर ट्यूशन देता था, इसमें समूह जैसा कुछ नहीं था। 

रामाकांत बाबु दूसरी श्रेणी के तहत आते थे जहां विद्यार्थियों का अलग-अलग समूह सुबह पहुंचता था। सर्वोदय नगर में प्रवेश करते ही थोड़ी दूर पर एक उजले मकान के पहले तल पर वह पढ़ाते थे। चप्पल-जूते बाहर उतारकर सभी विद्यार्थी अंदर जाते थे। एक टेबल के दोनों तरफ लड़के और लड़कियां और बाकी दोनों तरफ में एक तरफ सर और दूसरी तरफ विद्यार्थी बैठते थे। जहां तक याद है उस बैच में मेरे अलावा कुछ छह-साथ विद्यार्थी थे।

भगवतीचरण वर्मा की किसी कविता का जिक्र एक दिन हो रहा था और मेरा ध्यान उस ओर नहीं था। “हम दिवानों की क्या हस्ती” थी शायद वह कविता जिसे पढ़ाया जा रहा था। अगले दिन जब उस कविता के कवि का नाम ठीक से नहीं बताने के कारण दो ऊंगलियों के बीच कलम डालकर रामाकांत बाबु से मसला तो बचाखुचा मन भी पढ़ाई से टूट गया। साथ पढ़ने वालों के बीच शर्मिंदगी तो हुई ही लेकिन उससे बड़ी और बुरी बात यह हुई कि मन का एक हिस्सा कुंठित हो गया। पढ़ाई में कमजोर होना एक गैर-जमानतीय अपराध की तरह था, जिसकी सजा तो थी लेकिन इलाज किसी को मालूम नहीं था। सजा के तौर पर शारीरिक यातनाएं, डांट, रैगिंग जैसी चीजें थी। कुल मिलाकर प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने के बाद के अनुभव मिलने का वह शुरुआती दौर था।

बहरहाल, दिन बीतते रहे। एक दिन रामाकांत बाबू के यहां से निकलने के बाद घर जाने की इच्छा नहीं हुई। हर तरफ पढ़ाई का भारी दबाव था। रास्ते ही सुरक्षित थे तो तय किया गया कि रास्ते पर कुछ समय बिताया जाये। रामाकांत बाबू के यहां से निकलने के बाद रोजाना बायें मुड़कर फिर दायें से सड़क लोहियानगर के लिए जाती थी लेकिन उस दिन साईकिल बायीं के बजाये दायीं ओर मुड़ी और फिर चल पड़ी। 

"न उसे शाखों ने दी पनाह, और न हवाओं ने बख्शा,

वो पत्ता आवारा न बनता तो भला और क्या करता।"

साईकिल अभी बामुश्किल पहली मोड़ से गुजरी होगी कि दूर सामने दो लड़कियां जाती दिखीं। ये दो वही लड़कियां थीं जो रामाकांत बाबु के यहां पढ़ती थीं। साईकिल की रफ्तार बढ़ी और उन दोनों को ओवरटेक करने के बाद आगे सड़क के किनारे रखे बालू की वजह से स्स्साईं से नाचते हुए वहीं थम गये। अच्छी बात सिवाय इसके कुछ नहीं थी कि चोट नहीं आई। पीछे से आ रही दोनों लड़कियां हंसी रोकते हुए बगल से गुजर गई। 

इस घटना को बीते करीब डेढ दशक हो गये लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि कल की ही बात हो। 

यह इस तरह की पहली घटना थी और इसी तरह की दूसरी और संभवत: अंतिम घटना इंटरमीडिएट के उन दिनों में हुई थी जब सचदेवा न्यू पीटी कॉलेज में क्लास खत्म होकर बाहर आनेपर एक लड़के के स्कूटर को चलाते हुए लगभग इसी तरह की घटना स्टेशन रोड पर हुई थी। दोनों घटनाओं में काफी समानता रही और दोनों ही घटनाएं याद करते हुए अपने अंदर एक दोस्त को महसूस करते हुए हम दोनों झेंपते हुए खूब हंसते हैं।


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