पहला जीवनदान!
जीवनदान का कई अनुभव न भुलने वाला होता है। कुछ अनुभव तो ऐसे होते हैं जो अचानक जेहन में आते हैं और रौंगटे खड़े करके वापस कहीं गुम हो जाते हैं। इसी तरह कई ऐसी घटनाएं होती हैं जो होती तो बहुत पुरानी हैं लेकिन जिन्हें याद करके सालों बाद भी ग्लानि और शर्मिंदगी का भाव मन को गीला करने लगता है।
पिछले कुछ दिनों से कई ऐसी चीजें दिमाग में आती रही जिन्होंने कभी गुदगुदाया तो कभी जिन्हें याद करके अकेले में ही झेंप गया। यादों का एक पूरा पिटारा दिमाग के किसी न किसी कोने से कभी न कभी आवाज दे ही जाता है।
पता नहीं कितना दूर तक यह लेकर चलूंगा लेकिन सोच यही है कि रविवार को कुछ समय अब ब्लॉग पर दिया जाये. व्यवस्ततम हो चुकी जीवनशैली में डायरी को देने के लिए उतना वक्त तो अब बचता नहीं तो क्यूं नहीं रविवार को कुछ भूली-बिसरी चीजों को ब्लॉग पर डालकर एक संस्मरणनुमा संग्रह तैयार किया जाये।
इन्हीं सब विचारों से प्रेरित होकर "रविवार" स्तंभ की शुरुआत आज कर रहा हूं और पहला संस्मरण भी आज ही लिख रहा हूं जो कई दिनों से दिमाग में चल रहा था।
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पहला जीवनदान :
ठीक-ठीक याद नहीं लेकिन बारह-तेरह साल ही पूरे किये होंगे! घर के बड़े से आंगन में गंदे पानी का जमाव हो गया था। दरअसल शौचलय की जो पाईप टंकी तक जाती थी उसमें रिसाव था और धीरे-धीरे पूरे आंगन में वह गंदा पानी फैल गया था। जब स्थिति काबू से बाहर हो गई तो तय किया गया कि मिट्टी से पूरे आंगन को भर दिया जाएगा। इसके दो फायदे थे, एक तो बदबू से निजात मिलेगी और दूसरा आंगन का स्तर ऊंचा होने के साथ ही भविष्य पर वहां बगीचे को खाद का काम अंदर सड़ चुका पानी करेगा।
बारी-बारी से ट्रैक्टर की खेप आने लगी। तब मुहल्ले में उतने मकान नहीं थे और काफी जगह खाली-सा दिखता था। ट्रैक्टर एक बार मिट्टी गिराता और वापस जाकर मिट्टी लेकर आता। जिस जगह से मिट्टी लाई जाती थी वह पास का ही कोई गांव था।
बचपन में अमूमन गाड़ियों को देखना अच्छा लगता है। खिलौनों में भी गाड़ियों का खास स्थान होता है। कार, बस, ट्रेन वगैरह बच्चों के कमरों में अक्सर देखे जाते हैं। ट्रैक्टर से मिट्टी आ गया था और ट्रेलर से मजदूर उसे गिरा रहे थे। बड़ी उत्सुकता से यह सब देखते हुुए मैं ट्रैक्टर की सीट पर बैठकर स्टियरिंग घुमा-घुमा कर गाड़ी चलाने का बाल-आनंद ले रहा था। जैसा कि होता है, गाड़ी का हॉर्न बजाना बच्चों को पसंद आता है। मैंने वहां एक पीली बटन को हॉर्न समझ कर दबा दिया। खट-खट-खट-खट की आवाज के साथ ही ट्रैक्टर के आगे की पाईप के ऊपर से धुआं निकलते हुए ट्रैक्टर स्टार्ट हो गया। अफरातफरी ऐसी मची कि मजदूर चिल्लाए और ड्राइवर जो पीछे कहीं बैठा मिट्टी उतरने का इंतजार कर रहा था, भागते हुए आया। पीछे-पीछे मजदूर भी आए। देखा तो मैं वहां आतंकित होकर बैठा हुआ था। उनमें से कुछ हंसने लगे और आपस में बोला कि अच्छा था कि गाड़ी गियर में नहीं था।
दरअसल वह गली जहां हमारा घऱ है, इतनी संकरी है कि उसमें एक ट्रैक्टर के अंदर जाने के बाद साइकिल जाने की भी कम गुंजाइश बचती है ऐसे में अगर ट्रैक्टर स्टार्ट होते ही चलने लगता तो या तो मैं असंतुलित होकर या भयभीत होकर गिर जाता और संभावना थी कि पहिये के नीचे आ जाता, या फिर आसपास की दीवारों पर ट्रैक्टर चढ जाता और अगर सबसे बड़ी त्रासदी यह होती कि गली, जो कि मुश्किल से सौ गज की थी, से निकलते ही मुख्य रास्ते पर आ रही कोई गाड़ी ट्रैक्टर के चपेट में आती या फिर गली में घुसते ही जो बिजली का पोल दूसरी तरफ है उसमें ट्रैक्टर जा टकराता और कोई बड़ी दुर्घटना घटित होती।
यह एक ऐसा जीवनदान रहा जिसे मैं कभी भी भूल नहीं पाया। आज उस घटना को दो दशक से भी अधिक हो गये हैं लेकिन उस घटना की छाप ऐसे दिलोदिमाग पर है कि कभी कार चलाते समय भी जिस बटन के बारे में जानकारी नहीं होती वह मैं नहीं दबाता। आखिरी बार जब गोवा में एक कैमरामेन के कार से भाग्य के साथ घूम रहा था तो वाईपर ऑन करते हुए उस घटना की याद बार-बार आ रही थी।
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