Sunday, October 11, 2020

निहत्था

 

ऐसा कि मतलब सुबह के बाद दोपहर हुए बिना रात हो जाना! इतना अप्रत्याशित था सबकुछ कि मैं उनको संभालूं या खुद को, तय नहीं हो पा रहा था।

जमीन-जायदाद की जिन बातों से मैं खिन्न होकर अकेला रहने लगा था उन बातों से वह पटना में जूझते हुए गहरे अवसाद में गिरते ही जा रहे थे।

"मैं आपसे और बात करूंगा लेकिन आप पहले अपना खाना ख़त्म कर लीजिए"

"वह तीन दिनों से रखा है... मैंने कुछ खाया नहीं है तीन‌ दिनों से...(मुस्कुराहट ऐसी थी जैसे ठगने के बाद भी ठग को बख्श दिया हो)

"...ती...न...दिन!", इसके आगे मैं बोल‌ ही नहीं पाया कुछ!

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यूं‌ तो "रविवार" का यह स्तंभ शुरू किया था उन‌ अच्छी-बुरी स्मृतियों को सहेजने के लिए जो कभी-कभार बेचैन कर जाती थी लेकिन पटना आने के अगले ही दिन जो घटित हुआ उसने रौंगटे खड़े कर दिए।

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