रिक्तियां!
मोहन यादव की मृत्यु की खबर से मन खिन्न हो गया। गेटवे ऑफ इंडिया पर नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा दीपिका पादुकोण की पूछताछ की जा रही थी और वहीं बाहर से लाईव कर रहा था। अपडेट के लिए वाट्सएप बीच-बीच में देखते हुए एक ग्रुप पर उनके निधन की सूचना आई। जिसने सूचना दी थी उसने संक्षेप में यह भी लिखा था कि उन्होंने लाखों लोगों को शिर्डी साईं बाबा के दर्शन करने में मदद की थी। मोहन जी वहां के पीआर थे और मैं उनसे कई मौकों पर मिल चुका था। सूचना की पुष्टि करने के लिए अहमदनगर में दूरदर्शन के स्ट्रिंगर को फोन किया तो उन्होंने बताया कि वह कोविड की चपेट में थे और शनिवार की सुबह अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली।
किसी पत्रकार को एक महीने में औसतन दस से अधिक ऐसे फोन आते हैं जो किसी की मदद के लिए होते हैं। कई बार फोन की संख्या बहुत ज्यादा भी होती है, जो कि पत्रकार पर निर्भर करता है। मुंबई में रेलवे का टिकट कन्फर्म करवाने, टाटा कैंसर अस्पताल में इलाज के लिए थोड़ी पहुंच, रहने के लिए जगह, ज्योतिर्लिंग या अन्य मंदिरों के दर्शन जैसे लालबाग का राजा, सिद्धिविनायक की तड़के होने वाली आरती, शिर्डी के दर्शन से लेकर स्थानीय चुनावों में किसी पार्टी विशेष के टिकट के लिए पैरवी करवा देने सहित कई तरह के फोन मैंने अबतक लिए हैं। जो लोग फोन करते हैं वह आपसे काफी उम्मीद रखते हैं लेकिन उन्हें पता नहीं होता कि आप सिवाय माध्यम के और कुछ भी नहीं हैं। एक पत्रकार के पास वास्तव में कोई भी ताकत नहीं होती है, जिसकी वह धौंस जमा सके या जिसके बलबूते वह कोई काम करवा सके। उसकी पहचान की उसका सबकुछ होता है जो समय और परिस्थितियों के साथ बनता-बिगड़ता है।
![]() |
| 23 दिसंबर, 2017 |
मोहन यादव वैसे जनसंपर्क अधिकारियों में थे जो व्यस्त होने के बावजूद हरेक को समय देने की हर कोशिश करते थे। एक बार जब मैं उनके केबिन में उनसे बात कर रहा था तो पहले से वहां कुछ लोग थे, इसके बावजूद उन्होंने संक्षेप में ठीक से बात की और मेरे निकलते-निकलते तीन-चार और लोग उनके केबिन में दाखिल हुए थे। किसी की मदद के लिए इतना सक्रिय जनसंपर्क अधिकारी कम ही होते हैं।
मोहन जी का जाना मेरे लिए एक निजी क्षति न केवल इसलिए है कि हाल के दिनों में मैंने कई परिचित और नजदीकी लोगों को खोया है बल्कि इसलिए भी है कि अगर आगे से मुझे शिर्डी दर्शन के लिए किसी का फोन आता है तो मैं पहले की तरह शायद ही उसकी उतनी मदद कर पाऊं जितना मोहन यादव के समय में करने का मौका मिल पाता था।
---
और अंत में...
नीलम शर्मा, योगेश कुमार, दत्तात्रेय लोके, अजय पाटिल के बाद मोहन यादव का जाना धीरे-धीरे मुंबई में मुझे खाली करता जा रहा है। जिन लोगों से आप कभी मिले होते हैं, बातचीत हुई होती है, उनके वाट्सएप चलता रहता है, उनका अचानक न होना मन पर एक प्रभाव डालता है।
नीलम शर्मा मेरे लिए बस एक एंकर ही नहीं थी बल्कि वह महिला भी थी जिनके शॉ में मैं अपनी स्टूडेंट लाइफ में शामिल हुआ था।
इसी तरह कैमरामेन योगेश कुमार के साथ मैंने रिपोर्टिंग तो की ही थी, चुनाव के दौरान उन्हें घर पर आने का आमंत्रण भी दिया था लेकिन भागदौड़ में वह आ न सके।
अजय पाटिल ने नाशिक के हर असाइनमेंट में पूरी क्षमता के साथ हमारी मदद की थी और उनके अचानक निधन से त्रयंबकेश्वर का दर्शन उनके साथ करने का सपना धरा ही रह गया।
मोहन जी की जिंदगी का पूर्णविराम ऐसे वक्त में हुआ है जब हरतरफ निराशा का माहौल है।
कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है कि जिंदगी के मोहमाया के काफी पास के पिछले कुछ महीनों से गुजरना हो रहा है जहां किसी की मौत अब कोई बहुत बड़ी बात सी भी नहीं लग रही। सबसे मुश्किल काम है इन लोगों के मोबाइल नंबर अपने मोबाइल से डिलीट करना जो अबतक नहीं हो पाया है।

No comments:
Post a Comment