Friday, August 14, 2020

ऐसी करनी कर चलो, हम हंसे जग रोए

 

                                 ... और अनंत की यात्रा पर निकल गये लोके!

लोके के निधन की खबर पाकर फिर से कुछ देर के लिए सबकुछ ठहर गया।

उस दिन लाइब्रेरी के सामने गुजरते हुए शोर से बीच उनकी आवाज ठीक से सुने बिना आगे बढ़ गया था तो उन्होंने आवाज दे दी। ठहरने के बाद मालूम चला कि उन्होंने यूं ही अनौपचारिक हालचाल के लिए आवाज दी। भला आजकल ऐसा कहां होता है! 

एक-दूसरे से कटते-बचते चलने के दौर में कोई आदमी अगर भीड़ से भी आपको बस "कैसा है-सब ठीक है न-और सब..." कहने के लिए आवाज दे तो वह आदमी आपका समय डिजर्व करता है। रूक कर उस दिन लाइब्रेरी के दरवाजे पर ही न्यूज रूम के कॉरीडोर में उनसे बात करने लगा। गर्म आवाज थी उनकी लेकिन मधुर रहती थी। अब वह आवाज कॉरीडोर में फिर कभी सुनाई नहीं देगी।

श्री दत्तात्रेय लोके

सवेरे एक सहकर्मी ने जब कमरे में आकर बताया कि लोके नहीं रहे तो उनसे जुड़ी कई यादें अचानक आंखों के सामने से एक-एक करके गुजरने लगी। वह उनसठ की उम्र में भी काम करने में दिलचस्पी लेते थे। बाद में मालूम चला कि उनकी यह दिलचस्पी पिछले कुछ सालों से देखने को मिली थी जबसे उनका तबादला समाचार प्रभाग में किया गया था। पहले वह कार्यक्रम प्रभाग में थे। उनके करीबियों से बात करके ऐसा लगा कि उनकी "आखिरी इच्छा" समाचार प्रभाग में काम करने की थी और उसके लिए उन्होंने अधिकारियों से कई बार आग्रह किया था। 

करीब तीन साल पहले जबसे वह समाचार प्रभाग में आए थे उन्होंने एक भी छुट्टी नहीं ली थी जबकि कार्यक्रम प्रभाग में काम करते हुए उन्होंने अपने करीब तीस साल के कार्यकाल में लगभग चार सौ छुट्टियां ली थी।

आदमी को जहां मन लग जाए वह वहां रम जाता है। लीन हो जाता है। खो जाता है।

मैं जब कहीं फिल्ड पर लाईव करके दफ्तर आता था तो मुझसे टकराते ही बोल पड़ते थे कि आपका शर्ट आज अच्छा लग रहा था, बढ़िया बोल रहे थे...! नोटिस करने वाले लोग किसे पसंद नहीं होते!

दफ्तर के एक कैजुअल वीडिया एडिटर के सात-आठ साल के बच्चे के पैर में कैंसर होने के बाद उन्होंने टाटा कैंसर अस्पताल में अपनी सारी पहुंच लगाकर उसकी मदद की थी। यहां तक कि वह खुद भी अस्पताल चले गये थे। दफ्तर के लोग बताते हैं कि कई लोगों को उन्होंने आर्थिक मदद की थी। गौर करने वाली बात यह है कि इतनी बातचीत में भी आजतक उन्होंने कभी अपने मुंह से यह सब नहीं कहा जबकि दौर वह चल पड़ा है कि लोग किसी के लिए कुछ कर दें तो उसकी चर्चा करना किसी मौके पर छोड़ते नहीं हैं।

लोके जैसे आदमी का जाना वास्तव में मायूसी से भर देने वाला है क्योंकि आजकल वैसे लोग कम मिलते हैं जो हालचाल लेने के साथ-साथ मदद के लिए भी तैयार रहते हैं। बाकी औपचारिक दुनियादारी तो हर जगह दिखाई दे ही जाती है।


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दूरदर्शन सह्याद्री के दफ्तर में श्री लोके के निधन का सूचनापट





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