Saturday, June 6, 2020

इस ठोर से


                                               उस ठोर तक...

महाराष्ट्र के देहाती क्षेत्रों में कई बार जाना हुआ है। नेताओं के दौरे और चुनाव के दौरान वहां के लोगों को देखकर कई बार लगता है कि मुंबई छोड़कर वहीं बस जाऊं। खुली जगह, ताजी हवा, सामाजिक माहौल और किसी बड़े पेड़ के नीचे बुजुर्गों के समूह को देखकर मन वहां रहने के लिए ललचा जाता है।

बेगूसराय भी कभी ऐसा ही था। ट्रांसफरमर के उस मोड़ के बाद एक देहात सा शुरू होता था जो कि दूर रेलवे लाईन तक जाता था। रेलवे ट्रैक के उस तरफ एनएच इकत्तीस था और फिर उसपार दूर तक देहात पसरा हुआ था। मुंह में दतवन (दातून) लेकर कई बार देर तक ट्रांसफरमर के पास तक जाकर लौटना हुआ करता था। तब की सुबह आज जैसी कसी हुई नहीं होती थी। लौट के आकर अखबार पलटना और फिर दिन का धीरे-धीरे चढ़ना और उसके साथ ही बाकी हल्की-फुल्की गतिविधियों के साथ दिन का फिर खत्म हो जाना।

मुहल्ले की चौहद्दी मैदानों से करीब-करीब घिरी हुई थी।

सबकुछ भर जाने के बाद अब न तो वहां की हवा पहले जैसी रही और न ही वहां का पानी अब वैसा रहा। लोग अब आरओ का पानी खरीद कर पीते हैं और साईकिल पर बीस-पच्चीस लीटर का डब्बा लादे हुए लोग पूरे दिन मुहल्ले के किसी न किसी गली में दिख ही जाते हैं। लैंडलाईन भी धीरे-धीरे खत्म होता गया और मोबाईल पर निर्भरता बढ़ गई। हालांकि पापाजी को अब भी लैंडलाईन पर ही भरोसा है और घर में लैंडलाईन से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की गई है।

पलायन की विवशता न होती तो मुहल्ले में कितनी शांत जिंदगी हो सकती थी। हो सकता था कि गली के लड़के साथ में देर शाम तक कैरमबोर्ड खेल रहे होते या फिर महीने में दो-चार अच्छी पार्टियां घर पे ही होती और कुछ न होता तो कम से कम यह तपिश तो नहीं होती जो महानगरों में होती है। इतनी भागमभाग, तनाव, आशंका, इंतजार वगैरह।



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