Thursday, December 12, 2019

समय से संवाद


                                                   कह लेने दो!

संचार और संवाद के जिस दौर को हमारी उमर के लड़कों ने देखा है वह कागज पर कलम से लिखी जाने वाली चिट्ठी थी जो लिफाफा पर पांच रुपये के डाकटिकट चिपका कर एक जगह से दूसरी जगह भेजी जाती थी। उस दौर से आज के वाट्सएप चैट के दौर तक कितना कुछ बदल गया है।

चिट्ठियों को डाक बक्से में डालते हुए हम तसल्ली कर लेना चाहते थे कि वह ठीक से अंदर गिरा है कि नहीं। अगर आपको वह मौका याद है जब आप कुछ कदम लौटकर वापस डाक बक्से में जाकर अपने लिफाफे को और अंदर धकेल कर आए थे तो आप में भी वह बेचैनी होगी जो मैं कई बार महसूस करता है अपने अंदर और बाहर।

कुछ दिनों पहले पुणे से एक स्टाफ का फोन आया। विनम्रता से उसने बताया कि मौसम विभाग का कोई वैज्ञानिक है जिसने कोई खोज की है और वह चाहते हैं कि उनके इस खोज की खबर दूरदर्शन पर चले। मैं तब गेट-वे ऑफ इंडिया पर रक्षा मंत्री के एक कार्यक्रम में बैठा हुआ था। ज्यादा देर नहीं हुई जब मुझे उस वैज्ञानिक का फोन आ गया। कम शब्दों में हुई बातचीत में उन्होंने अपना शोध बता दिया और फिर फोन रखने के बाद उन्होंने वाट्सएप पर अपने शोध से जुड़ी जानकारी भेज दी। एक नजर में जो समझ में आया वह यह था कि उनको दरअसल प्रसिद्धि चाहिए थी। आने वाले तीन-चार दिनों तक उन्होंने फिर इतना फोन और मैसेज किया कि मैंने उनका फोन लेना छोड़ दिया और फिर पुणे के अपने स्टाफ को भी बतला दिया कि इस आदमी को झेलने मेरे लिए मुश्किल हो रहा है। पुणे का स्टाफ मेरी व्यस्तता समझता था और उन्होंने उस आदमी को ब्लॉक करने की सलाह दे दी।

कल राज्यपाल के एक कार्यक्रम में जब अचानक उनका फोन फिर से आया तो मैं घबरा गया। अगले दो मिनट में मैंने न केवल उनका नंबर स्थायी रूप से मोबाइल से डिलीट कर दिया बल्कि उनको एक लंबा मैसेज भी वाट्सएप पर छोड़ दिया जिसमें आगे से धैर्य रखने की सलाह मेरी ओर से उनके लिए थी। उसके बाद उनके दो-तीन मैसेज वाट्सएप पर उनकी तरफ से आये जिसे आर्काइव करके मैंने राज्यपाल के भाषण पर ध्यान केंद्रित कर दिया।

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संवाद को लेकर जो मुलायमियत तब थी वह अब कहां गई! तब तो इतनी कड़वाहट, चिड़चिड़ापन, तनाव, अविश्वास, खीस, अलगाव वगैरह नहीं था। कितनी तसल्ली थी तब।

धूप में खिड़की के पास बैठकर सस्ती सी कलम से लिखी गई चिट्ठी कितनी मिठास भरती थी दोनों तरफ। अब मोबाईल की एलईडी पर जलते हुए शब्द कितने अलग लगते हैं।

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सोशल मीडिया ने संवाद की मिठास से हमें न केवल दूर कर दिया है बल्कि उसमें निहित सच्चाई, निश्चलता, प्रेम के एहसास को भी एक तरीके से समाप्त कर दिया है। कोई जितनी आसानी से झूठ बोल लेता है उतनी आसानी से झूठ लिख नहीं पाता। झूठ बोलना आसान है लेकिन झूठ लिखना उतना आसान नहीं है। इसलिए कई लोग आज भी डायरी लिखते हैं। कोई भी आदमी जिसका चरित्र अच्छा है वह झूठ बोलने से बचता है और मजबूरन अगर झूठ बोल भी देता है तो इसकी कसक उसे बेचैन किये रहती है और यही कारण है कि वह उस जगह की तलाश करता है जहां वह सच बोलकर उस कसक से निजात पा सके।

पहले दोस्त थे, भाई थे, बहनें थीं या फिर कोई भी ऐसा था जिससे हम सच करने की हिम्मत जुटा लिया करते थे। अब! दुनियादारी अब इस रफ्तार को पकड़ चुकी है कि किसी को किसी पर पूरी तरह भरोसा नहीं है, डर है कि विश्वास से कही गई कोई बात कभी बाद में भारी न पड़ जाये। इसलिए डायरी का विकल्प सुरक्षित है। तब भी, अब भी।

लेकिन डायरी लिखने का वक्त अब पहले जैसा वैसे ही नहीं रहा जैसे किसी को चिट्ठी लिखने का। वे लोग भाग्यशाली हैं जिनके पास अब भी वक्त है। हो सकता है कि उनको अपने भाग्यशाली होने का एहसास नहीं हो रहा हो लेकिन वह उस तसल्ली को जरूर महसूस कर रहे हैं जिनको पाने के लिए मुंबई, दिल्ली, बैंगलोर जैसे मेट्रो शहर के लाखों-करोड़ों लोग कुढ रहे हैं।

हर कोई संवाद चाहता है। हर किसी के पास कुछ है जो वह कहना चाहता है। हर कोई चाहता है कि उसकी पूरी बात सुनी जाये, उसे कह लेने दिया जाये और कहते हुए वह सामने वाले को अपनी तरह ध्यान केंद्रित करते हुए भी देखना चाहता है।

दो दशक में कितना कुछ बदल गया है संवाद के तौर-तरीकों में!

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