अलविदा डीएलए!
नोएडा में जिस अखबार में इंटर्नशिप की, उसके बंद होने की खबर पाकर मन भारी हो गया।
डीएलए में की गई इंटर्नशिप एक औपचारिक इंटर्नशिप थी। औपचारिक इसलिए क्योंकि पत्रकारिता की औपचारिक पढ़ाई के बाद वह इंटर्नशिप की गई थी। हालांकि दिल्ली आने से पहले बेगूसराय में सिटी न्यूज, हिंदुस्तान, हिंदुस्तान टाईम्स, नवबिहार और सन्मार्ग के स्थानीय कार्यालय में प्रखंड से आ रही खबरों को कसना, प्रेस विज्ञप्तियां बनाना, रिपोर्टिंग करना वगैरह हो चुका था लेकिन दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद जो पहला इंटर्नशिप हुआ वह नोएडा के सेक्टर पांच में हुआ।
हरिराम गुप्ता, निधि गिल, विपिन उपाध्याय, हेमंत पांडेय, शशिकला सिंह, नीरज श्रीवास्तव, अरुण पांडेय, गौरव शर्मा, शशिकांत त्रिगुण, संजीव मिश्रा, प्रदीप सिंह, संतोष पाठक, संतोष कुमार, सूरज सिंह सोलंकी, दिनेश सिंह, किशोर और मोहित उपाध्याय सहित करीब पंद्रह लोगों का वह दफ्तर था। चार टेलीफोन, दर्जन भर कम्प्यूटर और उतनी ही कुर्सियों से बना हुआ वह दफ्तर एक अनुशासित दफ्तर था और उसे अनुशासित बनाए रखने का श्रेय अगर किसी को दिया जाये तो वह वीरेन्द्र सेंगर ही होंगे।
इंटर्नशिप में वीरेंद्र सेंगर जैसा संपादक मिलना उसे सुखद बना देता है। सेंगर सर सरल व्यक्तित्व के आदमी थे। कम बोलना और धीरे बोलना, इतना ही काफी है उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए। एक मात्र कथन जो उनका तब था वह यह कि गलती ठीक है लेकिन उसकी पुनरावृति नहीं होनी चाहिए। कम शब्दों में कही गई बहुत बड़ी बात थी यह जो उनको एक कद के लायक बनाती थी।
जब अजय अग्रवाल का लिखा यह पत्र भड़ास की वेबसाइट पर पढ़ा तो सबसे पहले अजय अग्रवाल का चेहरा आंखों के सामने से गुजरा। आगरा में एक बार उनसे मुलाकात हुई थी। मुलाकात से पहले उनके बारे में दफ्तर में जो बातें हुआ करती थी उससे ऐसा लगता था कि वह मालिक हैं।
नोएडा दफ्तर का काम हेमंत आनंद संभालते थे जो मेहनती थे। एक खुशगवार युवा की तरह उनकी जिंदगी दिखाई देती थी और उनके कुछ शौक थे जो उनकी जीवनशैली में भी झलकती थी। कुल मिलाकर एक समृद्ध परिवार के चिराग जैसी रौनक हेमंत आनंद के चेहरे पर हुआ करती थी। उन्होंने एक बार बहुत काम की बात कही थी जो मुझे हरदम याद रही। बात यह थी कि लीडर वह नहीं होता जिसे सबकुछ आता है बल्कि लीडर वह होता है जिसे यह पता होता है कि किसे क्या आता है। उन्होंने एमबीए किया था और उनका यह विश्लेषण सच में दमदार और तार्किक था।
बहरहाल, अजय अग्रवाल से मिलने के लिए जब आगरा गया तो उनसे मिलने से पहले नीरज पटेल से मुलाकात हुई। नीरज तब आगरा में ही किसी समाचारपत्र में काम कर रहा था और आईआईएमसी में हम दोनों साथ पढ़े थे। बातचीत के दौरान मालूम चला कि अजय अग्रवाल उस प्रजाति के बिजनेसमैन हैं जो चाय का भी हिसाब किताब किये रहता है। हालांकि हेमंत आनंद के बारे में ऐसी समझ मेरी बनी हुई थी एक घटना के बाद लेकिन अजय अग्रवाल के बारे में पहले से यह जानना अच्छा इस लिहाज से रहा कि जब मैं उनसे मिलने गया तो चाय की अपेक्षा तब नहीं की थी।
चूंकि डीएलए नोएडा के बंद होने की खबर तब दफ्तर में चर्चा में थी, बातचीत के क्रम में उन्होंने डीएलए आगरा में अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर लिखने का प्रस्ताव दिया। मतलब यह था कि मुझे दिल्ली से आगरा शिफ्ट होना होगा। बेचैनी भरे उस दौर में फैसला लेना जटिल हुआ करता था। अस्पष्ट नतीजे पर पहुंचकर मैंने उनको विदा किया और फिर दिल्ली आकर उसी नोएडा दफ्तर में पहले की तरह काम करने लगा।
डीएलए बंद होने के पीछे वजह जो भी रही हो लेकिन डीएलए का बंद होना दुखद है। यह दुखद इसलिए है क्योंकि डीएलए जैसे अखबार इंटर्न के लिए आगे का रास्ता आसान करते हैं। शुरुआत जितने छोटे से हो आगे का रास्ता उतना ही आसान होता जाता है।
खैर!
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