Monday, December 30, 2019


                                                       वैसी महिलाएं!

आदमी प्रतिस्पर्धा और नफरत के बीच जीते हुए कई बार अचानक किसी ऐसे शख्स से टकरा जाता है जो उसे वापस उसी जगह लाकर खड़ा कर देता है जहां से वह नफरत के रास्ते पर काफी आगे तक चल चुका होता है।

2008 के बाद ऐसा सीधे 2019 में हुआ।

ऐसे समय में जब कोई अपने से भी अपनेपन को अभिव्यक्त कर पाने में हिचकिचाता है, उस महिला ने गजब का अपनापन जाहिर किया था उस रोज। साल 2008 की वह शाम, पापाजी को दिल का दौड़ा पड़ा था और ईलाज के लिए कलकत्ता के देवी शेट्टी अस्पताल में वह भर्ती थे। घर का माहौल वैसा ही था जैसा कर्फ्यू लगे किसी मुहल्ले में शाम का होता है। शाम के बाद का अंधेरा!

दाल चढ़ा चुका था और रोटी बेलते हुए खामोशी से कुछ सोच रहा था। वह कमरा होटल वाले ने कुछ रुपये लेकर दिये थे जिसमें रसोई का सामान था। यह कमरा उन लोगों को दिया जाता था जो होटल का बना हुआ खाना रोज नहीं खा सकते थे। हमलोगों ने तय किया था कि अब खाना खुद ही बनाया जाएगा। अस्पताल के पास ही वह होटल था।

"लाईए मैं बना देती हूं"
"..."
"आप हटिए"
"...न...हीं नहीं...मैं बना रहा हूं...बना लूंगा...थोड़ा ही बचा है"

उस महिला ने जितने हक से बेलन मेरे हाथ से लिया मैं अवाक् रह गया था। बगैर किसी जान पहचान के कोई इतना हक जता दे वह भी किसी दूसरे राज्य के किसी होटल में तो यह आश्चर्य ही तो है।

मैं वहीं खड़ा रहा। मुझे एहसास हो चुका था कि मैं रोटी बनाते हुए कहीं खोया था और रोटियां जलती जा रही थी और शायद यही वजह थी कि उस महिला को ऐसा लगा हो कि मुझे रोटी बनाना आता ही नहीं या फिर मैं कहीं अपना नुकसान न कर लूं!

दो-चार रोटियां बनाने के बाद उनकी नजर बगल वाले बरतन पर गई जिससे दाल का पानी रिस रिस कर चुल्हे पर गिर रहा था। मैंने दाल को पूरा ढक रखा था और वह खौलने के बाद ढक्कन को धकेल रहा था। उन्होंने दाल का आधा ढक्कन खिसका दिया और फिर कुछ धीरे से कहा जो शायद यह था कि दाल को ऐसे नहीं ऐसे बनाते हैं।

फिर अचानक ही उन्होंने कहा कि वह वहां अपने बच्चे के ईलाज के लिए आई हैं जिसके दिल में छेद है।

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इस दुनिया की सबसे अच्छी बात है चीजों का बीत जाना या खत्म हो जाना। नीचे से ऊपर और इधर से उधर, सबकुछ बीतता है या खत्म हो जाता है। तनाव बस इस दौरान कटने वाले समय का ही होता है।

अनगिनत लोग आए-गए, कुछ क्षणभर के लिए याद रहे कुछ लंबे वक्त तक स्मृति में बने रहे। क्या खोया-क्या पाया का गणित अगर कोई लेकर कभी कहीं दूर जाकर बैठे तो उसको हर वह चीज अप्रासंगिक लगेगी जिसका लेखाजोखा लेकर वह उस गणित का हल ढूंढने की कोशिश करेगा।

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हर दरवाजे को हम खटखटाते हैं इस उम्मीद में कि कहीं कोई दरवाजा किस्मत का हो। दो साल के इंतजार के बाद जब 2 मई को वह दरवाजा खुला तो वह किस्मत का नहीं बल्कि अथाह दुख का था। इस साल का 2 मई शायद कुछ सालों तक याद रहे, वैसे ही जैसे 2008 या 2012 या 2016 की कई घटनाएं दिमाग में घर कर गईं।

29 दिसंबर को ऐसा ही एक दरवाजा खटखटाते हुए नवी मुंबई के नेरूल में पहुंचना हुआ। डीवाईपाटिल यूनिवर्सिटी के परिसर में लगातार तीन घंटे दोनों अबोध बच्चों को संभालना एक एडवेंचर ही था।

अचानक ही पीछे से उनकी आवाज आई कि एक मुझे दे दो। यह उतना भी अप्रत्याशित नहीं था लेकिन था अप्रत्याशित ही। बच्चों को प्यार से अपने पास लेना, गोदी में रखना या उसके गाल को छूना अलग बात है लेकिन बच्चे को इसलिए किसी की गोदी से अपनी गोदी लेना ताकि वह थोड़ा चैन ले सके, यह खास है।

दोनों को दोनों कंधे पर रखकर सुलाने का जो प्रयास मैं लगातार कर रहा था उसमें सफल नहीं हो पा रहा था। शायद यह देखकर उनको दया आ गई होगी।

2008 में भी शायद यही हुआ हो। खैर!


महिलाएं!

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