Saturday, May 18, 2019

आदमी ठीक से देख पाता नहीं


                                               और परदे से मंजर बदल जाता है!

काश गुप्ता बस एक नाम नहीं है, यह एक कलंक है जो भारतीय शिक्षा प्रणाली पर कालांतर से चला आ रहा है।

हर जिले में कई मुहल्ले होते हैं और हर मुहल्ले में कई गलियां होती हैं। हर गली में कई घर होते हैं और हर घर में अमूमन बच्चे होते हैं। यहां तक सुखद अहसास देने वाली बात अगले ही पल मनहूस हो जाती है जब यह कहा जाये कि उनमें से कई बच्चे आकाश गुप्ता से मिलते-जुलते होते हैं।

"लाखों में एक" देखते हुए मैट्रिकुलेशन और इंटरमीडिएट के दौरान देखी, सुनी और भुगती गई कई सारी घटनाएं अचानक आंख के सामने से गुजरने लगी।

मुझे मालूम चला था कि उसका दाखिला अमेठी विश्वविद्यालय में हुआ था। कुछ सालों बाद मुझे मालूम चला कि उसने कहीं कॉल सेंटर में काम शुरू कर दिया है और करीब दो साल पहले मालूम चला कि वह किसी कंपनी में काम करने के लिए मुंबई आया है और अब वहीं रहने वाला है।

हमारे यहां शिक्षा और रोजगार को जोड़ने वाले रास्ते में इतनी भूलभूलैया है कि इन दोनों से अलग सोचपाने का जोखिम कोई मध्यमवर्गीय परिवार लेने से डरता है।

शिशिर सिन्हा की वह बात यादगार हो गई जो उन्होंने दस साल पहले आईआईएमसी में कही थी। सरकारी नौकरी का मतलब किसी बिहारी से जाकर पूछ लो, इतनी सी बात दिल को इतने अंदर तक छू देगी किसने सोचा था। पढ़ाई और नौकरी, इसके बीच में जो घटना घटती है वह है शादी। इतना बड़ा ही मोटे तौर पर होता है संसार।

आकाश गुप्ता बदनसीब इसलिए नहीं है क्योंकि उसे जबर्दस्ती रायपुर से विशाखापत्तनम् भेज दिया गया बल्कि वह बदनसीब इसलिए है क्योंकि वह इतना ज्यादा अकेला है जितना होना उस उम्र में खतरनाक है। अकेलापन को जीने के लिए जो प्रशिक्षण चाहिए होती है उसका एक अपना पाठ्यक्रम होता है जो समय तय करता है, आकाश के पास वह प्रशिक्षण नहीं है इसलिए वह एक स्युसाइड नोट रूम में छोड़कर टेरेस पर जाकर कूदने का निर्णय कर लेता है। सबलोग कहां इतनी हिम्मत जुटा पाते हैं!

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और अंत में..

जब क्या करना है यह समझ में न आए तो यही सोचो कि क्या-क्या नहीं करना है। यह सोच शायद इंटरमीडिएट खत्म करने से कुछ महीने पहले आई थी और आज इसी सोच को एक टीवी सीरिज पर हूबहू देखना उत्साहजनक रहा। सही था मैं तब, वरना क्या पता कॉल सेंटर में नौकरी कर रहा होता।




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