...और कितने पन्ने!
किसी चीज को याद करके मायूसी से भर जाना और किसी चीज की कल्पना करके सातवें आसमान पर पहुंच जाना!
लंबे अंतराल के बाद जब 2016 का नवंबर महीना आया था तो काफी समय तक आसपास हो रही चीजों पर यकीन नहीं हो पा रहा था। किस-किस से नजर बचाकर वह महीना आया और किस तरीके से करीब ढाई साल तक वह रहा, यह अचंभित करने जैसा था। 2 मई 2019 तक रहने के बाद अब ऐसा लगता है कि वही पुराना अंतराल का सिलसिला अब आगे बढ़ने लगा है। वही धूप, गर्मी, बेबसी, उमस और सुदूर पसरा सन्नाटा!
जिस समाज ने बगावती बनाया, जहां रहकर समाज को लेकर एक अलगाव महसूस हुआ, जहां की असहजता ने नजरियों को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया उसी समाज में वापस जाकर कुछ समय बिताने की चाहत की तीव्रता इतनी बढ़ेगी कि मन उतावलेपन से भरकर रह-रहकर आहें भरना शुरू कर देगा यह भला किसने सोचा था!
चीजें नजदीक से कितनी बड़ी और दूर से कितनी छोटी दिखती है!
असमंजस एक तरह का अंधेरा है और इस अंधेरे से बाहर निकलना एक चुनौती होती है। हर उम्र में इस चुनौती का स्तर अलग-अलग होता है। असमंजस किसी भी चीज को लेकर हो सकता है - जीवनशैली को लेकर, नजरिये को लेकर, लक्ष्य को लेकर, संगति को लेकर, किसी के भरोसे को लेकर, अपनी क्षमता को लेकर या फिर उन सभी चीजों को लेकर जिनके बारे में अभी सोचना संभव नहीं हो पा रहा हो।
यह अंधेरा नया नहीं है। ऐसी कई छोटी और बड़ी रातें बीती हैं और उन रातों को बीतते हुए देखा गया है- डायरी गवाही देगी इस बात की।
परिवार आदमी को कुछ स्तरों पर मजबूत करता है तो कुछ स्तरों पर बहुत कमजोर भी कर देता है। सत्तर साल से आगे चले जाने के बाद भी जो मनहूसियत उनदोनों को अपने कब्जे में ली हुई है, उससे उन्हें कब और कौन मुक्ति दिला पायेगा यह समय को ही मालूम होगा। एक परिवार के एक हिस्से में हुए संक्रमण का ऐसा नतीजा होगा जो पीढियों तक भुगता जाएगा यह अगर किसी को पहले मालूम होता तो शायद कुछ मुकम्मल तैयारियां पहले की जाती इनसब से निबटने की।
एक परिवार जैसे अस्पताल के आईसीयू में दशक भर से पड़ा हो और टिक-टिक-टिक की आवाज वहां से आती रहती हो। हर सुबह और शाम उस परिवार का कोई न कोई हिस्सा बस यह कन्फर्मेशन लेता है कि टिक-टिक की आवाज आ तो रही है न!
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