एक मुलाकात उस अतीत से
बातचीत के क्रम में वह एडीजी को फोन लगा देंगे इसे लेकर मैं उतना श्योर नहीं था। एक तो उनका खुद फोन करके मिलने आने का सांकेतिक आदेश देना, फिर अपने किसी परिचित के घर बुलाना जहां वह खुद ही मेहमान हों और मिलने के दौरान मेरे दो साल पहले के चैट को वहां बैठे लोगों को दिखाकर मेरी एक अच्छी छवि वहां पेश करना यह सबकुछ क्यूं हुआ मैं समझ नहीं पा रहा था क्योंकि मैं सर्दी और बहते नाक को रोकने में अपनी ऊर्जा लगा रहा था।
थोड़ा सहज होकर गरम पानी का दूसरा ग्लास भी मैंने लाने को कहा।
किसी रिश्ते की गर्माहट बनाए रखने और उसके अंदर की तरलता को बरकरार रखने के लिए सबसे जरूरी क्या है? सम्मान। सम्मान होना और सम्मान होते हुए दिखना दोनों दो चीजें हैं। जिस दौर में जिंदगी बीत रही है वहां सम्मान के लायक तो दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता, जो दिखते हैं उनपर भी संदेह कायम रहता है। कहते हैं गलत को सब गलत दिखता है। हो सकता है कि मैं खुद सम्मान के लायक नहीं हूं इसलिये बाकी लोग भी वैसे लगते हों! खैर
केन्द्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन से कृषि भवन की तरफ निकलकर पास में जो प्रेस क्लब था वहीं उनसे मिलना शुरू हुआ था। तहलका के एक बड़े पत्रकार ने उनका नंबर देकर नौकरी के लिए उन्हें अप्रोच करने के लिए कहा था। उनके बारे में जितना मुझे बताया गया था उसके अनुसार वह एक बड़े अधिकारी थे और उनकी पहुंच ठीकठाक थी।
पहली मुलाकात के बाद जैसा कि होता है सीवी देना, फोन करना, मैसेज करना वगैरह चलने लगा। कई बार मेरे पास मेट्रो का किराया नहीं होता था और कई बार दो दफ्तरों में काम करने के कारण समय नहीं निकल पाता था, बावजूद समय-समय पर मेरा प्रेस क्लब जाकर उनके सामने अच्छी नौकरी के लिए गिरगिराने का सिलसिला जारी था। उनमें धैर्य था और यह उनकी सबसे बड़ी खासियत थी। उनके सामने मैं भी धैर्य से ही काम लेता था।
उस रात का धैर्य शायद ही मैं कभी भूल पाऊं जब उनका इंतजार करते हुए मैं ठंढ में खुले आकाश के नीचे प्रेस क्लब में पड़ा रहा और मुझे देर रात में मालूम चला कि उन्होंने वहां ड्रिंक ज्यादा कर ली थी और उनके दोस्तों ने उन्हें घर पहुंचा दिया। मैं स्तब्ध था! अवसादग्रस्त होने के कारण इस तरह की छोटी-मोटी घटनाएं कुछ खास असर नहीं कर पाती थी और सामान्य घटना की तरह ही लगती थी।
उन्होंने मेरी नौकरी के लिए काफी प्रयास किये थे। मेरी सीवी की कॉपी का उन्होंने मेरे सामने प्रिंट आऊट निकाला था और आलमीरा के ऊपर रखा था। पता नहीं अभी वह कॉपी कहां होगी! उन्हें जब मेरे एक्टिविज्म के बारे में पता चला तो उन्होंने मुझे प्रभात शुंगलु की एक किताब पढ़ने की सलाह दी थी जिसमें वर्णन किया गया था कि किस तरह न्यूजरूम में क्रांतिकारी स्वभाव के लोगों को आने नहीं दिया जाता है।
ठंढ बीती, गर्मी बीती और बरसात भी बीती। मौसम बीत रहा था लेकिन जो नहीं बीत पा रहा था वह था बुरा समय। लेकिन समय को बीतना ही होता है चाहे अच्छा हो या बुरा। दूरदर्शन में कैजुअल की सात दिनों की नौकरी, फिर सोशल मीडिया का काम करते हुए आखिरकार मेरा चयन मुंबई में बतौर दूरदर्शन संवाददाता के तौर पर हो गया। 29 जनवरी 2014 को मैं औपचारिक रूप से दूरदर्शन का पत्रकार बन गया। यह एक ऐसी उपलब्धि थी जो आने वाले समय में मुझे पहचान दिलाने वाली थी।
जिस तरीके से बुरे समय को मैं शायद ही कभी भूल पाया वैसे ही उस दौर में साथ रहने और साथ छोड़ने वाले लोगों को भी जेहन से कभी निकाल नहीं पाया. 2017 के किसी रोज एक अजीब सी तलब जगी और उन्हें ट्रेस करना शुरू किया।
फेसबुक पर वे नहीं थे न ही ट्विटर पर थे। आखिरकार जीमेल में जाकर काफी खोजने पर उनका मेल आईडी मिला। उन्हें ईमेल किया। कुछ दिनों में ईमेल का रिप्लाई आया और साथ ही उनका नंबर भी मिल गया।

इसके बाद संयोग से वह फेसबुक पर भी मिले। शायद मोबाईल में नंबर सेव करने के बाद उस नंबर से बने फेसबुक अकाउंट तक फेसबुक खुद ही पहुंचा देता है। लाईक वगैरह का सिलसिला चला और फिर चलता रहा.
पिछले कुछ दिनों से उन्होंने फेसबुक पर अपनी गतिविधि बढ़ा दी थी। परिवार के साथ उन्होंने गोआ की कई तस्वीरें डाली थी जिसे कई बड़े लोग भी लाईक कर रहे थे। लाईक करने वाले अधिकतर लोग रुतबे वाले थे और मेरी समझ में यह बात आसानी से आ गई कि उनके संपर्क न केवल तगड़े हैं बल्कि भरोसेमंद भी हैं इसलिये जब उनका कल रात फोन आया तो मैंने भाग्य को यही कहा कि मेरा मिलना जरूरी है और मैं कल दिन का इंतजार नहीं कर सकता। जिस आदमी के पास मैं नौकरी मांगने के लिए शाम और रात में जाता रहा अब नौकरी मिल जाने के बाद उससे मिलने के लिए समय के साथ तालमेल बिठाना अच्छी बात नहीं है!
उनका बड़प्पन था कि उन्होंने सत्कार के साथ घर में बुलाया और बाकी लोगों के साथ यह बोलकर परिचय करवाया कि मैं दूरदर्शन का ओवरओल देखता हूं। अच्छी बात यह हुई कि मैं चॉकलेट का एक बड़ा डब्बा अपने साथ लाया था और संयोग से उनके बच्चे वहीं लैपटॉप पे कुछ देख रहे थे तो मैंने उन्हें थमा दिया। उनके लिए लाई ज्लेबी भी मैडम के हाथ में दे दी। ऐसा लग रहा था कि कोई कर्जा उतार रहा हूं। उन्होंने मेरी नौकरी के लिए कई लोगों से बात की थी, बात नहीं बनी इसके लिए वह दोषी नहीं थे।
बात करते हुए उन्होंने दूरदर्शन के एडीजी को फोन लगा दिया और वह मेरे पास बैठे हैं यह भी उन्होंने उनको बता दिया। एडीजी को गलतफहमी हुई और उन्हें लगा कि मैं इनके जरिये कुछ कहलवाना चाह रहा हूं तो उन्होंने खुद ही उधर से कह दिया कि उसकी सैलरी का इशू देख रहे हैं। इन्होंने नब्ज पकड़ा और कह दिया कि योगेश की सैलरी हर हाल में बढ़ानी होगी आपको मुझे ओबलाइज करने के लिए। मैं असमंजस की स्थिति में पड़ा रहा।
असमंजस ही आखिरी सत्य है!
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