भीड़ में साहित्य की कमी का महसूस होना
मोसाद के कारनामों को पढ़ने के लिए जो किताब कल खरीदी थी
उसमें एथेंस का नाम पढ़ा तो जानने की उत्सुकता हुई। देखा तो सबसे घनी आबादी वाले
शहर के रूप में पहचान दर्ज थी गूगल पर। मन भिनक सा गया।
भीड़ दोनों ही परेशान करती है। बाहर की भी और अंदर की भी।
बाहर लोकल, टैक्सी की लाईन, ऑफिस
में लिफ्ट के बाहर खड़ी भीड़ या फिर चाय के लिए नुक्कड़ पर लगी भीड़। इसी तरह अंदर
की भीड़। घर की बातें, बातों के अंदर बने कई घर की बातें,
दफ्तर की बातें, दफ्तर के अंदर होने वाली घर
की बातें, भूत की बातें, वर्तमान की
बातें, भविष्य की बातें, संयोगवश होने
वाली बातें, संस्मरणात्मक बातें, लिखित
बातें, अलिखित बातें, फोन की बातें,
वाट्सएप की बातें, तमाम तरह की बातें और इन
सबका भीड़! ओह...हम्म्म!
भीड़ की यह गर्मी कब खतरनाक हो जाए कोई नहीं जानता। इतनी
कसी हुई चीजों के बीच गुंथी हुई जिंदगी में वक्त कितना महंगा हो गया है। अगर अचानक
फोन आ जाये कि अस्पताल आना है तो मन में टैक्सी, लोकल,
ऑटो, ओला, भीड़, रुपये सब इतनी जोर से चकराएंगे कि स्थिर होने में समय लगेगा। खैर!
साहित्य को मिस करते हुए यह छठा या सातवां साल होगा। शायद आठवां! अंग्रेजी साहित्य से स्नातक की पढ़ाई और फिर उसके बाद एक के बाद एक उपन्यास पढ़ने का वह दौर कितना अच्छा था।
उपन्यास से गुजरते हुए आदमी कई बार खुद को किसी किरदार की तरह देखते हुए उस उपन्यास को पढ़ने लग जाता है। मुझे चांद चाहिए को पढ़ते हुए कई बार ऐसा लगा कि मैं ही वर्षा वशिष्ठ हूं और उसके साथ जो घटित हो रहा है वही हूबहू मेरे साथ भी हो रहा है। यह, हालांकि एक तरह की फैंटसी थी, लेकिन बहुत असरदार रही।
कभी-कभी लगता है जो भीड़ अब है, वह तब भी तो थी। क्या तब सेटल होने का दबाव नहीं था? क्या तब खरे उतरने का दबाव नहीं था हर जगह - स्कूल में, कॉलेज में, कोचिंग में, घर में,
ग्रुप में...? ये दूरियां तब भी तो थीं!
लोहियानगर से रतनपुर, विश्वनाथ नगर, प्रोफेसर
कॉलोनी, पोखरिया, स्टेशन रोड वगैरह
ज्यादा दूर नहीं थे लेकिन ज्यादा नजदीक भी तो नहीं थे! ट्रैफिक भी तो होता था।
दुर्घटनाएं भी तो होती थी। फिर क्या है जो उस भीड़ से इस भीड़ को अलग करती
है...क्या है जो उस भीड़ में भी सुकून देती थी लेकिन इस भीड़ में डर देती है!
उस दिन क्लास में यूं ही सर से पूछ लिया - सर आपने अखंड ज्योति पढ़ा है! सर ने थोड़ी देर देखा फिर कहा कि अखंड ज्योति के करीब-करीब सभी अंक उन्होंने पढ़ा है।
जिन पत्रिकाओं से गहरा लगाव हुआ उनमें अखंड ज्योति का पहला स्थान हमेशा रहा। पतली सी यह पत्रिका गजब का आत्मविश्वास पैदा करती थी और कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित करने के साथ-साथ बाहरी संक्रमण से बचने के कई ऊपाय भी बताती थी।
दिल्ली से मुंबई आने के बाद जो नया महौल मिला उसमें साहित्य की कमी शुरुआती दिनों में तो महसूस नहीं हुई लेकिन धीरे-धीरे लगने लगा कि साहित्य से बढ़ती दूरी मन को भटका रही है। मुंबई के करीब-करीब सभी ठिकानों पर ढ़ूंढ लेने के बावजूद मनलायक पत्रिका नहीं मिली। आखिरकार अखंड ज्योति तक पहुंचने के लिए गूगल की मदद ली और ऑनलॉइन पत्रिका का सब्सक्रिप्शन ले लिया। पूरा भुगतान करने के बाद भी पत्रिका नहीं आई और फोन पर बात करने के बाद भी कोई समाधान नहीं निकला।
करीब तीन साल तक अखंड ज्योति का पीछा करने के बाद आखिरकार एक लिंक मिला। युगांडा में प्रधानमंत्री के दौरे को कवर करते हुए विभा कश्यप से मुलाकात हुई। बाद में पता चला कि वह देव संस्कृति विश्वविद्यालय से पढ़ी है। डॉट कनेन्ट करने में ज्यादा देर नहीं लगा और मैंने सीधे-सीधे उसे बता दिया कि किस तरह भुगतान करने के बावजूद हरिद्वार वालों ने अखंड ज्योति की प्रति नहीं भेजी। उम्मीद के अनुरूप विभा ने सक्रियता दिखाई और मेरे भारत लौटने के कुछ दिनों बाद ही गायत्री परिवार से जुड़े लोगों ने मुझसे संपर्क किया।
हालांकि पत्रिका अब भी भौतिक स्वरूप में प्राप्त नहीं हुई है लेकिन उम्मीद है कि जल्द ही वह अपने पुराने स्वरूप में प्राप्त होगी औऱ मुझे वापस उसी दुनिया में लेकर जाएगी जहां इतनी भीड़ महसूस नहीं होती थी।
No comments:
Post a Comment