Thursday, August 2, 2018

ये किस उम्र में आ गया मैं


                                        जहां रहस्य और रहस्यमय होता गया

कुछ रहस्य कभी नहीं सुलझते। मुंबई और दूरदर्शन दोनों ऐसे ही रहस्य बन चुके हैं।

डीएलए की नौकरी के बाद जब हिंदुस्तान में न नौकरी कर पाने की कसक मन में बसी थी और दैनिक जागरण की नौकरी तक का सपना देख पाना ही हो पा रहा था तब दूरदर्शन में केजुअल की नौकरी मिलना एक रहस्य जैसा ही था। जैसे-जैसे ओहदा बढ़ता गया, रहस्य भी गहराता गया और पिछले दिनों दूरदर्शन की तरफ से अफ्रीका जाकर प्रधानमंत्री के दौरे को कवर करना रहस्य को इतना गहरा गया कि इस ओर सोचना व्यर्थ सा लगने लगा।

इसी तरह मुंबई भी हमेशा रहस्य ही रहा। 2011 का कोई दिन था जब फोन पर किसी ने किसी के बारे में परिचय देते हुए कहा था कि वह मुंबई में रहते हैं। याद है कई साल पहले मुहल्ले के ही एक भैया के साथ जब स्टेशन रोड के पास जा रहा था तो उन्हें रिक्शे पर कोई आदमी आता दिखा और पूछने पर उन्होंने बताया कि वह पुणे में रहता है और शायद छठ पूजा के लिए घर आया है।

मुंबई और पुणे को लेकर भौगोलिक ज्ञान इतना कमजोर था कि 2014 तक यह नहीं मालूम था कि मुंबई और पुणे के बीच का क्या रिश्ता है। कभी लगता था पुणे मुंबई का कोई इलाका होगा तो कभी लगता था कि पुणे मुंबई का ही कोई और नाम होगा। ये सब इसलिए था कि जीवन में सोच की सीमा दिल्ली से आगे कभी बढ़ी ही नहीं, इसलिए जब दूरदर्शन ने मुंबई के लिए नियुक्ति दी तो कुछ समय के लिए वक्त ठहरा सा लगा। फिर धीरे-धीरे बढ़ा और फिर बढ़ते-बढ़ते वापस अपनी गति पकड़ ली।

दूरदर्शन के नब्बे के दशक के धारावाहिक को यूृ-ट्यूब पर देखते हुए मन गीला होने लगता है। मन करता है लोहियानगर के अपने कमरे में एक कोने में बैठकर जीभर कर रोऊं और रोता रहूं। उन सालों में कितना कुछ चल रहा था!

पापाजी के हाथ में सब्जी का झोला, मम्मी की फूर्ति, भैया की मार, दीदी की कलाकारी, लैंडलाईन फोन का रिंग, मछली बनने की खुशी, बर्तन को भाड़े पर देने का काम, ओनिडा ब्लैक एंड व्हाईट टीवी का चुपके से चलना और बंद होना, छत पर जा रही केबल में पिन लगाकर केबल चोरी करके फिल्म देखना, घर का कठोर अनुशासन, बहुत देर तक बिजली न रहने के बाद बिजली आने की खुशी में पागल हो जाना, बगीचे में बाल्टी से पानी पटाना, बगीचे के पेड़ की खुश्बू में बाहर लैंप जलाकर रात दस बजे तक पढ़ाई करना, बड़ी दीदी के घर आने की खुशी में पागल सा हो जाना, ट्यूशन वाले सर का डर, बगीचे में बेल का गिरना, गली के सब लड़कों-लड़कियों के साथ कोनाकोनी, नुक्काचोरी, कबड्डी, क्रिकेट, छुआछुई, पिट्टो वगैरह खेलना और कितना कुछ।

क्या यू-ट्यूब दूरदर्शन के उन धारावाहिकों की झलकियों की तरह इन घटनाओं की भी झलकियां नहीं दिखा सकता एक बार!

क्या वो झलकी अब कभी दिखेगी जब पापाजी को रेलवे स्टेशन छोड़ने के लिए करीब रोज मैं साइकिल लेकर तैयार रहता था क्योंकि 504 डाउन पैसेंजर गाड़ी कभी-कभी समय से आ जाती थी। पापाजी को खगड़िया जाना होता था और सवेरे से उनके दिनचर्या में इतनी चीजें शामिल होती थी कि अक्सर ट्रेन पकड़ने में वह देर हो जाया करते थे और साइकिल से उन्हें स्टेशन छोड़ना पड़ता था।

एक बार खगड़िया में ट्रेन पकड़ने के क्रम में वह दौड़ते हुए लड़खड़ा गये थे और उनके एड़ी के पास की हड्डी टूट गई थी। डॉ दीपक भट्ट ने तब प्लास्टर लगाया था और पापाजी करीब महीने भर तक वैशाखी के सहारे चले थे। पापाजी को उस हालत में देखना कितना दुख देता था तब! पापाजी हमेशा दुख में रहे। दूसरे के दुख को भी वह जीते रहे। ललितेश्वर मामू को दांत में कैंसर होने की बात का उन्हें बहुत अफसोस था। रिश्तों को निभाने में हमेशा आगे ही रहे पापाजी।

आज का दूरदर्शन बहुत बदल चुका है। दूरदर्शन अब डीडी न्यूज है। डीडी न्यूज यानि खबर। अब न शांति है, न वक्त की रफ्तार, न कैप्टन व्योम, न वर्धमान, न टी टाईम मनोरंजन, न स्मॉल वंडर और न ही शक्तिमान। अब मार्क लीन, मुनमुन भट्टाचार्य, अमित साहूूू, कुमार अनिल, अर्चना श्रीवास्तव वगैरह ही डीडी न्यूज का मतलब बनकर रह गये हैं। हालांकि पापाजी और मां को हमेशा मेरे दूरदर्शन पर आने पर अभी भी शायद उतनी ही खुशी होती है लेकिन तब वाली स्थिति और अब वाली स्थिति काफी अलग है।

सुधांशु रंजन का पटना से होने वाला पीटीसी और मेरा अफ्रीका के युगांडा से होने वाला पीटीसी का अपना-अपना किस्सा है। सुधांशु रंजन की वह यादें अनमोल हैं और हरदम रहेंगी। शाम सात बजे का वह दूरदर्शन का समाचार बुलेटिन अनमोल रहेगा।

उन रहस्यों का क्या जो इस बीच अपना अनुभव छोड़ गये। 2012 का क्या! 2015 का क्या! 2016 का क्या!

इस एकांत को जीते हुए भी कई बार बीता साल, दशक और सदी की यादें साथ हो ही लेती है। कुछ दूर तक साथ रहने के बाद अपना असर छोड़ कर वह फिर ओझल हो जाती है।

क्या यू-ट्यूब मेरे उस हाफपैंट और उस कटिंग वाले शर्ट में कोई वीडियो नहीं दिखा सकता जब मैं दूर तक मुंह में दतमन चवाते हुए जाया करता था। दूरदर्शन की यादों से कई यादें नत्थी है। ऐसा ही मुंबई के साथ है। मुंबई के बॉम्बे होने के समय के कई वीडियो यू-ट्यूब पर मौजूद हैं। मुंबई और दूरदर्शन को जीते हुए अतीत से अलग रह पाना संभव नहीं है। काश कि यह संभव हो पाता!


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