ऐसा न हो कि जख्म कोई फिर
नया मिले!
बेगूसराय में पत्रकारिता
करते हुए बिताये गए समय तब बहुत याद आते हैं जब वहां से किसी पत्रकार का फोन आता
है।
दिल्ली और मुंबई की
पत्रकारिता जितनी व्यापक न होने के बावजूद वहां पत्रकारिता का अच्छा माहौल है। जो
लोग पत्रकारिता में हैं, वे पत्रकारिता की समझ रखते हैं। इलेक्ट्रॉनिक की तुलना
में प्रिंट का दबदबा होने के बावजूद वहां सिटी न्यूज के नाम से इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया की अपनी एक खास जगह और पहचान है। सिटी न्यूज ने प्रदेश और देश स्तर पर कई
पत्रकार दिये, जिसमें मैं खुद भी शामिल हूं।
एक औसत कमरा, जिसमें एक
टेबल और चार कुर्सियां थीं, सिटी न्यूज का दशक भर पहले तक न्यूज रूम हुआ करता था।
बाहर मैदान में एक जेनरेटर होता था जो बिजली जाने पर चलाया जाता था, कुछ गायें भी
वहां पलती थीं। एक कुत्ता भी बंधा होता था। दफ्तर के नाम पर दो कमरे थे और इनके
अलावा एक स्टूडियो और उससे सटा छोटा सा कमरा था जिसमें बुलेटिन के लिए जरूरी
सामग्री जैसे कागज साटने के लिए गोंद, समाचार लिखने के लिए कागज वगैरह रखे होते
थे। तब प्राम्पटर नहीं था और एंकर के सामने से कागज को मैनुअली घुमाया जाता था।
एंकर के तौर पर पुरूष में संजीत सिन्हा और महिलाओं में विजेता शेखर, दीपशिखा
सिन्हा, प्रियंका और निशा हुआ करतीं थीं। दफ्तर के बाहर सड़क पर दो गाड़ियां हीरो
हॉन्डा स्पलेंडर और बजाज डिस्कवर लगी रहती थी, जिसे फिल्ड रिपोर्टिंग के लिए काम
में लाया जाता था।
आज अचानक सिटी न्यूज को याद
करने की कुछ खास वजह है।
अनगिनत बाईट्स और विजुअल
बनाते हुए सिटी न्यूज के दौरान जो सबसे दर्दनाक चीज थी वह था वहां अवैतनिक होना।
कई बार ऐसा हुआ था कि बाईक में तेल भी अपने रुपयों से भरवाना पड़ता था। इसके दो
नतीजे हुए – पहला यह कि सिटी न्यूज से अलग होने तक यह उम्मीद कायम रही कि कभी किसी
रोज संस्था का विवेक जागेगा और जेबखर्च लायक रुपये मिलेंगे और दूसरा यह हुआ कि
उम्मीद एक सीमा तक जाकर खत्म हो गई।
सही कहा गया है कि किसी को इतना नहीं डराना
चाहिए कि उसके अंदर का डर ही खत्म हो जाए! अपेक्षा मृत हो गई। अपेक्षा न करना ही सुखी जीवन
का मूलमंत्र है, ऐसा ज्ञान प्राप्त करने के बाद एक संतुष्टी का एहसास मन में जागा।
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बेगूसराय की पत्रकारों की एक रैली ट्रैफिक चौक से गुजरती हुई |
इस ज्ञान ने तब राहत दी जब
सिटी न्यूज से निकलकर अखबारी पत्रकारिता में गया। दो ऐसी घटनाएं हमेशा के लिए
यादगार बन गईं जब अपेक्षा न करना सुकूनदायक रहा। पहली घटना दैनिक हिंदुस्तान के
दफ्तर में घटी, जहां बाई-लाईन स्टोरी प्रकाशित होने के दिन ही फोन पर उस दिन से न
आने के लिए कह दिया गया और दूसरी घटना जिला पत्रकार संघ के परिचय पत्र बनवाने के
क्रम में तब घटी जब हिंदुस्तान से निकाल दिये जाने के कारण परिचय पत्र निर्गत नहीं
किया गया। ये दोनों ही तब के बड़े शौक थे, जो पूरा होते-होते रह गये थे। इन दोनों
घटनाओं की कसक काफी समय बाद तक रही और ये दोनों घटनाएं स्मृति से कभी विलोपित नहीं
हो पाई।
इनसब से अलग कोबरापोस्ट के
एक पत्रकार की चपेट में आकर कुछ महीनों तक लगातार बेवकूफ बनने की घटना एक बुरे
अनुभव के रूप में हमेशा याद रही।
ऐसी कई घटनाओं ने कई ऐसे
अनुभव दिये जिसने मेरा दिल्ली और मुंबई का सफर आसान कर दिया।
आज इन सब घटनाओँ को एक दशक
से ज्यादा बीते हो गया है। फिर भी अगर ये सब स्मृतियों ने अचानक धावा बोला है तो
उसका कारण है जिला पत्रकार संघ का मौजूदा सम्मेलन।
लॉ की परीक्षा के आखिरी
सत्र में लीन रहते हुए जून का महीना बीत रहा था। लोकल वाशी स्टेशन निकल रही थी कि
अशांत भोला का फोन आया। उनका फोन आना आश्चर्य की बात थी क्योंकि दो साल पहले
बेगूसराय में उनसे हुए मुलाकात हमारी आखिरी मुलाकात थी। अशांत भोला सिटी न्यूज में
तब संपादक हुआ करते थे जब मैं वहां काम सीख रहा था।
योगेश जी बोल रहे हैं!
जी।
बेटा, मैं अशांत भोला बोल
रहा हूं बेगूसराय से।
प्रणाम सर, कैसे याद किये।
बेटा जिला पत्रकार संघ का
स्मारिका प्रकाशित होने वाला है उसके लिए एक आर्टिकल भेज दो।
आत थोड़ी देर तक चली और फिर
औपचारिकतापूर्ण तरीके से खत्म हो गई।
कुछ दिन बीते तो सिटी न्यूज
में साथ काम करने वाले एक पत्रकार का फोन आया और उन्होंने उस पत्रकार से बात
करवाया जो तब जिला पत्रकार संघ के सचिव थे, जब संघ का परिचय पत्र मुझे निर्गत नहीं
किया गया था। उसकी वजह हिंदुस्तान अखबार से मेरा निष्कासन था, जिसके कारण मैं तब
मायूसी के दौर से गुजर रहा था।
इस बोर फोन पर हुई बातचीत
में औपचारिक आमंत्रण दिया गया और यह भी कहा गया कि मेरे आने-जाने की व्यवस्था
आयोजकों द्वारा की जाएगी। फोन रखने से पहले उन्होंने स्मारिका के लिए एक आर्टिकल
भेजने की बात भी कही।
आमंत्रण की बात दिमाग के
अंदर एक दशक पहले तक गई और मन में एक भाव जागा कि बेगूसराय के हर उस व्यक्ति का
आभार व्यक्त करने का यह सही समय होगा जिन्होंने मुझे बर्दाश्त किया था और मुझे
मेरी गलतियों के बावजूद स्वीकार किया था। इसमें कई नाम शामिल थे। राजीव कुमार का
नाम इन नामों में सबसे ऊपर था जिन्होंने उस वक्त अपना सैमसंग का मोबाइल मुझे दे
दिया था ताकि मुझे रिपोर्टिंग में दिक्कत न हो! उनके कई उपकार थे मेरे ऊपर।
आनन-फानन में मैंने 17 जून
की अपनी न्यूज असाइनमेंट का जिम्मा दूसरे को सौंपा और सुनिश्चित किया कि मुझे
बेगूसराय जाने में कोई अवरोध का सामना न करना पड़े। 15 जून को मेरी लॉ की आखिरी
परीक्षा थी और मैंने तय किया था कि रात की फ्लाईट से जाकर 18 की सुबह की फ्लाईट से
वापस आकर ऑफिस रिपोर्ट कर दिया जाएगा।
इस बीच 30 मई को राष्ट्रपति
रामनाथ कोविंद का पुणे दौरा का कार्यक्रम बना और मेरा नाम उस असाइनमेंट के लिए भेज
दिया गया। 29 को जब मैं वहां पूरे कार्यक्रम को कवर करने की मीटिंग अपने स्टाफ के
साथ ले रहा था तभी अनजाने नंबर से फोन आया। जिला पत्रकार संघ के अध्यक्ष के रूप
में उन्होंने अपना परिचय देते हुए आनेजाने की तारीख के बारे में मुझसे पूछताछ की
और फिर मैं अपने काम में लग गया।
दिन बीतते गये, उसके बाद न
फोन आया, न मैसेज और न ही ई-मेल। बस अशांत भोला का एक फोन आया उसी आर्टिकल के
संबंध में, जो मैंने भेज दिया।
आज 17 तारीख है और मैं मुंबई
में अपने स्टडी रूम में बैठा इस सोच में डूबा हूं कि मैंने बेगूसराय के साथ ऐसा
क्या किया है जिसके लिए मुझे अबतक इतना अपमान झेलना पड़ रहा है!
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