दूसरी किस्त
पल दो पल- सवाल दर सवाल
पूरी जिंदगी जीनी क्यूं जरूरी है? अगर तजुर्बे उम्र से बड़े हो जाएं तो बाकी जिंदगी किस काम की!
अगर जवाब नहीं आए तो कोई परीक्षार्थी तीन घंटा क्यूं बैठेगा परीक्षा हॉल में? बेकार! अच्छा होता है कि एक घंटे की अनिवार्य उपस्थिति के बाद उसे निकलने की छूट होती है. फिर जिंदगी के साथ ऐसा क्यूं नहीं है?
एक जुआ जिसमें तमाम शर्तें और कायदे हैं. जीतने वाले को बीच में खेल छोड़ कर जाना नियम के खिलाफ है. उसे तबतक खेलना होगा जबतक हारने वाले के पास हारने के लिए कुछ भी बचा हुआ हो.
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आईआईएमसी के इंटरव्यू में पहली बार सफल नहीं हो पाना पहली बड़ी हार थी. एक साल खपाने के बाद जिंदगी को पटखनी दी और एंट्रेस के साथ-साथ इंटरव्यू भी क्रेक कर दिया.
दांव बड़े होते चले गये और फिर समय के साथ रेस शुरू हुआ. कई लड़ाइयां हुईं. खेल और दिलचस्प होता चला गया और धीरे-धीरे पता ही नहीं चला कि कब क्या दांव पर लग गया.
रिश्ते, चैन, करियर, प्रतिष्ठा, नाम-बदनाम और न जाने क्या-क्या दांव पर लग गया.
इतना समझ आने लगा कि जिंदगी एसएससी, बैंक पीओ या रेलवे की परीक्षा नहीं है. परीक्षा में अगर आपको सवाल नहीं आते तो आप कॉपी जमा करके लौट सकते हैं लेकिन जिंदगी!? जिंदगी के साथ ऐसा कहां! पूरी जिंदगी बितानी पड़ती है और सवालों का सिलसिला हमेशा जारी रहता है. आप क्विट नहीं कर सकते तबतक जबतक आपके पास खोने के लिए आपकी आखिरी सांस हो!
इसलिए जिंदगी परीक्षा नहीं जुआ है!
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सम्मान, नाम, प्रतिष्ठा, इज्जत, विश्वास, भरोसा वगैरह वगैरह. यही वे चीज हैं जो आदमी को न चैन से जीने देते न मरने देते. हर समाज में इसके अपने-अपने मापदंड हैं. जैसे बिहार में सरकारी नौकरी ही मोक्ष है तो दिल्ली में सैलरी मेटर करती है और इन सब से अलग मुंबई में नाम मायने रखता है.
दिल्ली लोग रुपये कमाने आते हैं और मुंबई लोग नाम कमाने के लिए.
लिखते-लिखते सोचने लगता हूं कि क्या लिखूं और कहां से शुरू करूं क्यूंकि सबकुछ गड्डमड्ड हो गया है. जो जहां था वहीं पड़ा है और सबकुछ छोड़छाड़ कर मैं तेज गति से भाग रहा हूं.
भागना क्यूं जरूरी है?
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तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय
पुरूष के लिए अपकृति मरण से भी बढ़कर है.
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