Monday, November 24, 2025

खौफनाक रात


                                           आईजीआईएसएस का ई-एचडीयू

18 नवंबर की रात जो देखा वह दहला देने वाला था। इतनी बेचैनी, इतना डर, इतनी विवशता शायद पहले कभी नहीं देखी या महसूस की थी।

"मास्क पहन लो न", इतना मैंने उससे कहा था। ई-एचडीयू के चौथे बेड पर बैठा वह दम लगाकर सांस खींच रहा था। एक मौत वहां शाम में मेरे सामने हुई थी एक बुजुर्ग की और मैं वहां बेहद अशांत और बेचैन था। हर बिस्तर को देखकर लगता कि अब किसी की धड़कन रूक जाएगी! भयानक नकारात्मकता से भरा वह कमरा घुटन से भरता जा रहा था। पापाजी कभी आंख बंद रखते तो कभी खुली आंखों से सोए रहते तो कभी दम लगाकर उठते और बिस्तर से नीचे उतरने के लिए बेचैन होते। उनके हाथ बांध देने का भी ज्यादा असर नहीं हो पा रहा था क्योंकि उनकी विवशता देखकर मैं हाथ ढीला कर देता था और फिर वह उतरने लगते। एक बार तो उन्होंने पैर से मुझे पीछे किया और तब उतरे। इतना कमजोर देह में भी उनकी दृढ़ता कमजोर नहीं हुई थी।

मैंने नोटिस किया कि वह लड़का अब लेटा था। मुझे संदेह हुआ और मैंने गौर किया तो पाया कि उसे सांस लेने में तकलीफ़ भी नहीं होती दिख रही थी। मैं सहम गया क्योंकि ऐसा आभास हुआ कि वह अब सांस ले ही नहीं रहा। हरकत तेज हुई मेरे अंदर क्योंकि उसी समय बाहर से धर्मेंदर भी आया जो वहां नर्सिंग करता था। उसके पीछे-पीछे आंख मलते हुए काजल सिस्टर आई। उस लड़के की मां ने छाती पीटना शुरू कर दिया था।

 मैं बदहवास सा बाहर भागा और डॉक्टर जो कि कमरे से आंख मलते निकल रहा था उसे कहा कि अंदर पेनिक सिचुएशन है थोड़ा जल्दी चलिए। उस डॉक्टर के व्यवहार की वजह से मुझे पहले ही वह ठीक नहीं लगा था लेकिन नाईट शिफ्ट में उसी के हवाले ई-एचडीयू था तो मैं उससे सीधा पंगा नहीं ले सकता था। उसने आया और मरीज के परिजन को डांट लगाई कि ऑक्सीजन क्यूं नहीं लगाए थे जब बार-बार बोला गया था।

ये सब मैं अपनी आंखों के सामने होता देख रहा था। कभी उसकी मां की चीख देखता तो कभी उसके भाई की विवशता। फिर सीपीआर दी गई, तीन सुई दी गई, थोड़ी देर तक सबकुछ समझते हुए भी जान डालने की कोशिश की गई। हालांकि शुरू में सीपीआर के समय एक बार उसने चीखा तो मुझे गरूड़ पुराण की बातें याद आने लगीं कि जान कैसे निकलती है। भाग्य नीचे साई हुई थी। मैं मन ही मन यही सोच रहा था कि उसकी नींद न खुले।

सुबह देर तक उस लड़के का शरीर वहीं पड़ा रहा जैसे आमतौर पर सरकारी अस्पतालों में होता है। मुंबई लोकल, दफ्तर, दफ्तर का कमरा, अपना कमरा, कैंटीन की चाय, समोसा, ऑफिस का बगीचा इन सबके अलावा एक चीख-पुकार वाली जिंदगी भी कहीं चल रही होती है जहां लोग मर रहे होते हैं, तड़प रहे होते हैं, हार रहे होते हैं.

अगली सुबह मैं अपने अंदर अजीब से बेचैनी महसूस करने लगा। लग रहा था कि कैसे पिताजी को यहां से कहीं दूर ले जाऊं जहां हर तरह लोग हंस रहे हों, अच्छी बातें हो रही हो, ताजे फूल की खुश्बू आ रही हो, सुंदरकांड का पाठ हो रहा हो और वैसा सबकुछ हो रहा हो जो पापाजी को पसंद है।

है राम...


लाश...





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