रामेश्वरम और जगन्नाथ पूरी
जो हुआ वह अविश्वसनीय है। महीनों से बनी योजना जब सफल होती है तो अविश्वसनीय या दिखने वाला काम हुआ प्रतीत होता है। भुवनेश्वर में उतरने के बाद, वहां एनएबीएम में ठिकाना मिलना, रोज-रोज जॉमेटो से खाना ऑर्डर करना, हमारा आपस में खींचतान होना, फिर पूरी जाना, वहां दर्शन हो पाना, फिर एक-एक कर सारे ट्रेन का टिकट कंफर्म होते जाना और आखिरकार रामेश्वरम में सभी तरह का दर्शन करके वापस होटल आ जाना...सच में ये सब कैसे हो पाया यकीन नहीं होता है।
समय रुके, थमें, थोड़ा वक्त दे तो लिखा जाए कि कैसे भुवनेश्वर स्टेशन पर ओला वाले ने आने से मना कर दिया क्योंकि ऑटो यूनियन वालों से उसे खतरा था, कैसे एक बड़ी गाड़ी तीन सौ रुपये में मिल गई जिससे एनएबीएम जाना संभव हो पाया। क्या बीता जब पता चला कि वहां खानेपीने का इंतजाम नहीं है और हर वक्त का खाना जोमेटो से मंगवाना पड़ेगा। कितना चले थे उस रात हम दोनों कि कुछ रुपये बच जाएं। क्या-क्या हुआ और कैसे-कैसे बीत रहा था एक-एक पल!
कितना बड़ा झटका लगा जब रामेश्वरम में होटल वाला अपनी बात से पलट गया और श्रवणा ने धोखा दे दिया। कैसे व्हील चेयर उपबल्ध हुआ और कितना डरा हुआ था मैं जबतक कि सबकुछ सही से हो नहीं गया।
क्या कभी वक्त मिल पाएगा उन चीजों को याद करने का जो शायद याद भी न रह पाए एक समय के बाद।
अंत से पहले क्या कोई आएगा जो बताएगा कि वह उस अंधेरे में मेरे साथ खड़े होकर मेरी मदद कर रहा था। जो हुआ वह बिना किसी के मदद के संभव नहीं था लेकिन कोई दिखा नहीं मुझे अपने आसपास।
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