अकेला वही कामोठा, वही सन्नाटा!
अकेला रहते-रहते आदमी इतना अकेला हो जाता है कि उसे अपने आसपास किसी का होना चिड़चिड़ा बना देता है। सबकुछ अपने हिसाब से और अपने ही अनुरूप करते रहने की वजह से कोई गुंजाइश ऐसी नहीं बचती कि कुछ अलग या नए के साथ सामंजस्य बनाया जा सके।
दो साल हो जाएंगे अकेलेपन को। न किसी से वैसी कोई सहानुभूति मिली जिसपर भरोसा और न किसी की ओर देखकर ऐसा लगा कि वह हाथ बढ़ाएगा। जटिलतम परिस्थितियों के बीच रामेश्वरम और जगन्नाथपूरी की तीर्थयात्रा का बिना किसी बड़ी दिक्कत के हो जाना, एक तरह का चमत्कार ही है।
पिछला दस दिन और उससे पहले के कई दिन भयानक आशंकाओं और तनाव से भरे रहे। जबतक यात्रा का टिकट कंफर्म नहीं हुआ, तनाव व्याप्त रहा। स्ट्रेस का लेवल इतना था कि मैं अकेले कई बार अपने सर धुनता रहा लेकिन अब जब यात्रा संपन्न हो गई और सबलोग कटिहार और बेगूसराय के लिए चले गए और मैं वापस इस छोटे से घर में अकेला रह गया तो फिर मन में सुकून लौट आया है।
सबकुछ रहस्यमय है।
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