अमरावती उन शहरों की गिनती में है जहां का नाम बड़ा-सा लगता है लेकिन वैसे चहलपहल वहां कभी दिखी नहीं। चुनाव के दौरान वहां जाना हुआ था। प्राचीन किले जैसी दीवारों से सटे खुले नाले के पास मुस्लिमों की आबादी साफ दिखाई देती थी। मुझे याद है जब चुनाव में उधर गया था तो आम खरीदा था और आम-चिउड़ा खाकर काम चलाया था क्योंकि ढ़ंग का कोई होटल नहीं दिख रहा था।
इस बार जब मन की बात में वहां गया तो राजधानी होटल की याद आ गई। वही एक नाम था जो अमरावती के साथ यादों से जुड़ गया था क्योंकि चुनाव में मैं वहीं रूका था और बस एक रात का वह अनुभव ठीकठाक था।
होटल वाले को फोन किया और फिर वहीं रूका। संयोग ऐसा था कि जब रात में बाहर खाने के लिए निकला तो फिर वही मुस्लिम ठेलेवालों का एक लाईन से खड़े होकर आम बेचना और बाकी सबकुछ वैसा ही दिखा। मुझे लग रहा था कि सबकुछ वही है बस मैं एक साल और आगे आ गया हूं।
इस बार चिउड़ा-आम खाने का मन बिल्कुल नहीं हो रहा था तो काफी पूछताछ करने के बाद एक बनारसी भोजनालय का पता चला। वह हालांकि थोड़ी दूरी पर था लेकिन अनजान शहर में चलने का अपना ही मजा होता है। वहां पहुंचा और संतुष्ठ होकर खाया।
शायद अमरावती का यह आखिरी दौरा हो क्योंकि अब और ऐसी जिंदगी नहीं चल पाएगी बहुत दूर तक।
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