Thursday, September 14, 2023

छत्तीसवां शुरू

 

                                                              आगे क्या...

पैंतीस पूरा होने में एक दिन रह गया है। खुश हुआ जाए या अफसोस किया जाए!

क्या खोया, क्या पाया का हिसाब करने पर लगता है कि जो पाया उसे संभालना चुनौती बनती जा रही है और जो खोया उसका अफसोस उस चुनौती से पार पाने नहीं दे रहा है।

सरकारी नौकरी की जितनी उम्मीदें थीं वह कल के बाद लगभग खत्म हो जाएंगी। ज्यादातर नौकरियों के लिए योग्यता अमूमन अट्ठाइस से तीस साल तक होती है। थोड़ी-बहुत जो बच जाती है वह पैंतीस तक और फिर उसके बाद...

लॉ करना सार्थक नहीं रहा। आगे हो भी सकता है किसे पता। कई लोगों से कहते सुना है कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। अगर ऐसे लोग कभी साथ में फुरसत से बैठते तो उनसे पूछता कि यूपीएससी का जो रिजल्ट खराब हुआ उसमें क्या अच्छाई रही और बीपीएससी-पीआरओ, जेएनयू-पीआरओ, यूजीसी-नेट आदि में जो असफलता मिलती रही यह किस अच्छाई के लिए रही! 

पैंतीस से आगे का रास्ता और भी चुनौतीपूर्ण होगा। इसकी दो-तीन बड़ी वजहें हैं। बच्चों की पढ़ाई का दबाव लगातार बना रहेगा, दफ्तर का माहौल कब बिगड़ जाए कहा नहीं जा सकता और सबसे बड़ी वजह कि मुंबई की महंगाई को बाहर से आया हुआ एक कंट्रैक्चुअल कितने समय तक झेल पाएगा भला!

पैंतीस पूरा होने से ठीक पहले वैष्णो देवी का यात्रा यादगार रहेगी। पैदल करीब तीस किलोमीटर पहाड़ पर चढ़ना-उतरना और घोर अंतर्विरोध को जीते हुए वापस मुंबई आना न भूला जा सकेगा और न ही भुलाना चाहिए।

                                                                              जय माता दी...

डिफेंस करस्पोंडेंट कोर्स भी एक घटना की तरह ही याद की जानी चाहिए। लगा नहीं था कि डीसीसी हो पाएगा। जैसे संयोग बने उसमें असंभव ही संभव हुआ। दफ्तर का वैसा माहौल, संवादशून्यता, घोर तनाव, धोखा वगैरह के दौर में डीसीसी कर लेना एक तरह का चमत्कार ही हुआ। 19 अगस्त को कोणार्क एक्सप्रेस में चढ़ने से पहले 18 अगस्त को मुंबई के राजभवन में जो घटना घटी और उसका देर रात तक जो असर रहा वह कहां भूल पाऊंगा मैं! टूटे हुए मनोबल से एक-एक दिन काटना सच में कितना कठिन होता जा रहा है।

भाग्य बच्चों के दो सप्ताह में दो बार मुंबई से बिहार गई और आई। इस दौरान उसने वैसे दिन देखे जो उसने कभी सोचे भी नहीं होंगे। बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित शिक्षक भर्ती परीक्षा के दस्तावेज सत्यापन की आसान सी प्रक्रिया इतनी जटिल हो गई कि लगा कि सबकुछ रेत की तरह हाथ से फिसल जाएगा। हम दोनों ने चिल्ला-चिल्लाकर भगवान की आवाज दी और आखिर में जब हमारे आंख सूख गये तो काम बड़ी मुश्किल से हो पाया। वैष्णो देवी परिवार के साथ जाने की इच्छा पूरी नहीं हो पाई। ग्रह-नक्षत्र सब प्रतिकूल जैसे लगने लगे। अर्चना एक्सप्रेस जी-20 के कारण रद्द हो गई और हिमगिरी एक्सप्रेस का टिकट कन्फर्म नहीं हो पाया। कोशिश हर संभव की गई थी लेकिन आखिर में यह मानकर संतोष कर लिया गया कि मां का बुलावा ही नहीं आया।

उधर, घर की दशा वैसी ही! पटना बारूद के ढेर पर है पता नहीं कब कोई चिंगारी लगे और धमाका हो जाए।

कुल मिलाकर मेरी परछाई मुझे थड़थड़ाती, कांपती, डगमगाती हुई दिखती है और आईने में खड़ा शख्स मानसिक विक्षिप्त सा कोई अधेड़ उम्र का ऐसा पुरूष दिखता है जिसके कनपटी के बाल उजले होते चले जा रहे हैं और सर के बाल गायब होते दिख रहे हैं।

हॉटल द पार्क, विशाखापत्तनम

मुंबई और नवी मुंबई के बीच किराए का बहुत अंतर है। तन्वी पिछले दो महीनों से दो स्कूल में पढ़ाई कर रही है। वह कोलाबा केंद्रीय विद्यालय में भी पढ़ती है और कामोठे के लोकनेते रामशेठे ठाकुर पब्लिक स्कूल में भी। एक मध्यवर्गीय परिवार कैसे जीता है मुंबई में उसकी एक कहानी मुझपर भी बन सकती है। हजार-दो हजार-तीन हजार बचाने की जुगत में कितने भारी-भरकम फैसले लेने होते हैं और उसे कितनी बारीकी से जांचना-परखना होता है!

मुंबई लोकल से मुक्ति जरूरी है। करीब छह साल हो गए लोकल की ठस्समठस्स को जीते हुए। अब लगता है कि बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं हो पाएगा। जो चीजें इच्छा के विरूद्ध करनी पड़े वह मनोबल को खंडित कर देती है और ऐसी एकाधिक चीजें वर्तमान में की जा रही है। दफ्तर आना उसमें से एक है। लोकल, दफ्तर, बासठ सीढ़ी और घर-परिवार के लोगों से इतनी दूरियां...इन सब चीजों से मुक्ति चाहिए। क्या मिल सकती है?

पैंतीस के बाद का जीवन पता नहीं कैसा होगा लेकिन पैंतीस तक का जीवन रक्तरंजित रहा। अपने ही चिथड़ों को समेटते हुए वापस उसे बिखड़ते देखना भला कैसा होता है! 

आचार्य जी, धनवंतरी जी और अजय पाठक जी ने दो टूक शब्दों में शनि की महादशा और राहु-केतू के भयानक प्रकोप की बात कह दी। रहम के एक शब्द भी नहीं निकले किसी के मुंह से। जो पूजापाठ होना था वह हो न सका क्योंकि दफ्तर के पास मेरे हिस्से की इतनी छुट्टी नहीं और मेरे पास पूजापाठ के लिए चालीस-पचास हजार रुपये का अतिरिक्त बजट नहीं। कुल मिलाकार बात टलती गई, टलती गई और इस जगह जा पहुंची कि अब सामने लगी आग में जलते हुए निकलना है और आगे जाकर देखना है कि कोई पानी डालने वाला मिलता है या नहीं!

अब आखिर में :

जैसे शिक्षक पढ़ाने के रुपये लेते हैं, विद्यालय रुपये लेता है, कॉलेज का अपना शुल्क होता है वैसे ही कई बार जिंदगी भी कुछ सिखाने के रुपये लेती है। जिंदगी तो कई तरह की कीमत लेती है वैसे लेकिन खैर...!

विशाखापत्तनम के हॉटल "द पार्क" का अनुभव अच्छा रहा। दो रात "हल्दी दूध" का रुपया तो उसने जोड़ा था लेकिन निकलते हुए बातचीत में वह मामला सुलझ गया और कोई भुगतान नहीं करना पड़ा। जान में जान आई। डीसीसी के दूसरे चरण में जब हमलोग पुणे पहुंचे तो "हॉटल फॉर प्वाइंड बाय शेरेटन" में रहना हुआ। सबकुछ सामान्य सा दिख रहा था। कमरे में एक छोटे डलिये में बादाम, काजू और पिस्ता के डब्बे थे और दो चिप्स की डब्बियों के अलावा कुछ चॉकलेट्स थे। अफ्रीका में भी जिस हॉटल में ठहराया गया था वहां ऐसा था। कंप्लीमेंट्री समझकर उसे चलना मेरे लिए बहुत बड़ा झटका लेकर आया। जिस दिन सुबह पांच बजे पुणे हवाईअड्डे के लिए निकलना था, नौ हजार रुपये का बिल थमा दिया गया। चेहरे पर बहुत सालों बाद वैसे हवाइयां उड़ी थी और वैसा चेहरा सूखा था। "जब रुपये नहीं थे तो कन्ज्यूम भी नहीं करना था", यह बात उस मैनेजर की दो-तीन दिन बाद तक याद रही। ऐसा उसने तब कहा था जब मैंने हार कर कह दिया कि मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं।

आखिरकार वो सब हुआ जिसकी कल्पना नहीं की थी। बैग को बस से निकालकर, वापस कमरा नं 701 में ले जाकर, रखे डब्बे निकालकर, उसे वापस करके, नौ हजार के बिल को चार हजार पर किया। क्रेडिट कार्ड ने इज्जत रख ली। इन चार हजार रुपये में मैंने सीखा कि एक चीज होती है जिसे "मिनी बार" कहा जाता है। उससे कुछ लेने से पहले कंफर्म कर लेना होता है कि यह कंप्लीमेंट्री है या चार्जेबल!

                                      मिनी बार :)



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