Saturday, December 3, 2022

पश्चाताप

                                                      

                                                          क्रोध अगन‌ से‌ तेज‌ है

पछताने की एक वजह हो तो कोई थोड़ी देर रुककर पछता ले लेकिन जब पछताने की वजहें अनेक हो तो फिर कोई क्या करे और किससे अपनी लाचारी कहे!

किसी बात को लेकर उस दिन आपा ऐसे खोया जैसे लगा कि पूरा घर में तीव्र भूकंप का झटका आया हो। पास रखी किसी चीज पर जोर की लात पड़ी और तेज आवाज आई। झटके से मैं कमरे के अंदर था और फिर झटके से सीधा सीढ़ी से नीचे सड़क पर स्टेशन की ओर। तमाम तरफ जब किसी चीज को खींची जाए तो तनाव उत्पन्न होता है और यह आदमी के साथ भी लागू होता है। घर, दफ्तर, जिम्मेदारी सुनने में जितनी छोटी चीजें लगती है होती उतनी नहीं है।

उस शाम घर आया तो तन्वी अपनी टूटी साइकिल लिए बैठी थी। मन घोर ग्लानि से भरा जा रहा था लेकिन अब करने को कुछ नहीं था सिवाय पछतावे के। मन इतना बैठ गया था कि लगता था गन्नू और तन्वी के पैर में लटक कर उससे माफी मांगूं। तन्वी को वह साइकिल उसके नानाजी ने दिया था जब वह मुंबई आए थे। तन्वी ने उसे खूब चलाया था और तन्वी के बाद उसे गन्नू चलाता था। कई बार दोनों एक दूसरे को बैठाकर पूरे घर का चक्कर लगाते थे। उसके कई सारे वीडियो भी हमलोगों ने बनाए थे। कुल मिलाकर घर का सबसे महंगा खिलौना वही था जिससे घर की रौनक भी थी और बच्चों का अच्छा मनोरंजन भी होता था। यूं तो मिक्सर, बाल्टी, डस्टबिन सहित कई चीजें गुस्से में आकर मैंने तोड़ी थी लेकिन बच्चों की इस साइकिल का टूटना सबसे ज्यादा असर डाल रहा था जिसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि वह साइकिल तन्वी को मैंने नहीं दी थी।

कुछ दिनों तक अपराधबोध के चरम तक पहुंचकर तय किया कि उसे हर कीमत पर ठीक करवाया जाएगा। उसके बाद असली परीक्षा शुरू हुई। जिस जगह से वह साइकिल ली गई थी उस जगह जाकर हर कोशिश करने के बाद भी उस साइकिल की मरम्मती वहां नहीं हो पाई क्योंकि वह मॉडल पुराना हो चुका था। गूगल की सहायता से दूरदराज के साइकिल स्टोर को भी छान मारा लेकिन वहां से भी कोई उम्मीद नहीं दिखी और सबने हाथ खड़े कर दिये।


तन्वी और गन्नू टूटी साइकिल के साथ

घर आकर जब भी देखता था कि दोनों बच्चे उस टूटी साइकिल से खेल रहे हैं तो खुद पर बहुत शर्म आती थी और लगता था कि सच में मैं एक निहायत ही गंदा इंसान हूं जो दुर्भाग्यवश इन बच्चों का पिता है। प्रयास जारी रहा और आखिरकार घऱ से छह किलोमीटर दूर एक दुकान में बात बनती दिखाई थी। उस दुकानवाले ने साइकिल की तस्वीर मंगवाई और कुछ समय लेकर कहा कि वह उस साइकिल का कुछ न कुछ तो कर ही देगा! उसकी बात में दम था।

आखिरकार, स्कूटी से साइकिल लेकर अकमल जी के जनता साइकिल स्टोर पर पहुंचा और वहां साइकिल जमा कर दी। मिस्त्री ने कागज पर मेरा नंबर लिखा और कहा कि हो जाएगा तो आपको फोन कर देंगे। दुकान से लौटते हुए लग रहा था कि कोई कर्ज उतारने जा रहा हूं। घर आया और फिर जब अगले कुछ दिन पुणे में था तो अकमल जी का फोन आया कि आपकी साइकिल हो गई है, ले जाइए। पुणे से घर न आकर सीधा ऑफिस की गाड़ी से ही साइकिल की दुकान पर गया और साइकिल उठा ली। साइकिल के पीछे को दोनों पहिये बदल दिए गए थे। साइकिल देखने में तो अब पहले जैसा नहीं लग रहा था क्योंकि एक साइकिल में दो अलग-अलग तरह के पहिए अच्छे नहीं लग रहे थे लेकिन न से हां भला। साइकिल वापस चलने लगी।

बच्चे बड़े होंगे तो जरूर पूछेंगे कि साइकिल का आगे का पहिया वैसा और पीछे का ऐसा क्यूं है! 


       

मरम्मती का कार्य अपनी निगरानी में करवाती तन्वी


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