Wednesday, October 19, 2022

फेंकना मना है


                                                      वाइब्स समझा करो!

वाइब्स एक अजूबा है। मतलब यह कि पहले यह सोचिए कि वाइब्स है क्या फिर जब इधर-उधर से ठोस हो लीजिए कि वाइब्स ये हो तो फिर वाइब्स सच में है या नहीं इसको लेकर माथा पच्ची कीजिए और फिर जब वाइब्स से लगातार सामना होने लगे तो खुद को बेलेंस्ड करते रहिए कि क्या मानें और कितना मानें!

यह सब पिछले कुछ समय से कई बार हुआ लेकिन पिछले दिनों जो हुआ उसने इस बारे में कुछ लिखने के लिए बाध्य कर दिया।

ली-कुपर का जूता मुंबई की बारिश कितना झेल पाता सो बेचारा धीरे-धीरे मृतप्राय हो गया। अनदेखी और तिरस्कार झेलते-झेलते धूल-धूसरित एक कोने में पड़े रहते महीनों बीत गये और दीवाली की साफ-सफाई के दौरान उसे डस्टबीन की दिशा दिखा दी। डस्टबीन में पहले से कुछ कचड़ा पड़ा था सो जूता उसमें समा नहीं पाया और वापस उसे उसी शू-केस में डाल दिया यह सोचकर कि कल कचड़े वाले तो दे देना है।

अगला दिन व्यस्तताओं से भरा रहा और दोपहर बाद हुई एक बैठक में मालूम चला कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव मुंबई दौरे पर हैं और आलाकमान का आह्वान है कि ऑफिस के लोग सूट में रहें और जूता काला ही होना चाहिए। हालांकि यह आदेश बॉस को मिला था लेकिन जिस लहजे में उन्होंने बैठक में इसका जिक्र किया उसके बाद औपचारिक रूप से कुछ कहने की जरूरत भी बाकी नहीं रह गई थी।

देर रात घर पहुंच कर शू-केस की ओर देखा। लू कूपर के अलावा अपने पास ब्लैकबेरी के एक जूते थे लेकिन वह काले नहीं थे। बाकी के सभी जूते स्पॉर्ट्स शू थे तो कुल मिलाकर जो जूता पिछली रात डस्टबिन से निकला था उसपर अगली ही रात पोलीस चढ़ाई जा रही थी। 

कई बार जिस चीज को लंबे समय तक उपयोग में नहीं आने के कारण बाहर का रास्ता दिखाया जाता है वह बाहर जाते ही अपनी कमी महसूस कराने लगती है। शायद यही वाइब्स है!

जूते वाली यह घटना कोई पहली घटना नहीं है। 

अमेजॉन से कुछ साल पहले एक आलमीरा लिया था। सस्ता आलमीरा छोटे-छोटे पाइप और कपड़ों से बना हुआ था। एक समय के बाद वह इस हाल में नहीं रह गया कि काम आ सके सो उसे हटाकर नया चदरे का आलमीरा ले लिया गया। अब सवाल यह था कि पिछले आलमीरे के पाइप का क्या किया जाए। हमेशा लगता था कि यह काम आएगा लेकिन काम कभी नहीं आया। फिर एक दिन उसे बाहर का रास्ता दिखाने का निश्चय हुआ और दिखा दिया गया। इस घटना के कुछ दिनों बाद ही नवरात्री शुरू हुई। भाग्य का दांडिया करने का मन था। बाजार में दांडिया की कीमत में भी आग लगी थी तो तय हुआ कि दांडिया घर पर ही रंगीन कागजों के सहारे से बना लिया जाएगा। रंगीन कागज की कमी तो थी नहीं। कमी पड़ी उस पाइप की जिसे कचरा समझकर कुछ दिनों पहले ही फेंका जा चुका था। 

बहरहाल अच्छी बात यह थी कि कुछ पाइप तब भी घर को कुछ कोने में पड़े थे जो शायद कह रहे हों कि "वाइब्स समझते हो कि नहीं बे..."



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बात अब उसकी जो जुबान पर आती नहीं!

मोबाइल! जीवन का रुख मोड़कर उसे तनाव के रास्ते ले जाने का नाम है मोबाइल। मोबाइल की बार-बार की झुंझलाहट से तंग आकर पिछले दिनों गैरजरूरी-सा लगने वाले मोबाइल नंबर को डिलीट करने का जोख़िम भरा काम शुरू हुआ।

मजेदार यह कि हर नंबर के साथ सिनेप्लेक्स जैसी यादें तैरती जाती थी‌। ड्राइवर ओर पीआर सर्च बॉक्स में डालकर एकाध छोड़ सारे नंबर डिलीट करते जाने का अपना सुकुन था‌। इसके बाद एक-एक कर छंटाई शुरू हुई। इसी क्रम में एक नाम स्क्रीन पर अनूप का नाम आया। आफिस का वीडियो एडिटर। आफिस में ही तो होता है और जब काम पड़ेगा तो किसी से ले लिया जाएगा! इस तरह भरी हुई सोच के साथ उसका नंबर डिलीट कर डाला। अनूप के साथ सिवाय हाय-हैल्ल़ो की औपचारिकता के कुछ अलग नहीं होता था।


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