Sunday, October 16, 2022


                                                         करतनों के दौर का बीतना

आखिरकार आठ सालों के बाद कतरनों से निजात मिल गई। 

दफ्तर के काम से कहीं आनेजाने के लिए यात्रा भत्ते का जो प्रावधान है उसे सबसे जटिल इन कतरनों ने बनाया था। कतरन मतलब रहने और खाने का बिल। सरकारी नियमों के मुताबिक ये बिल दफ्तर में लेखा विभाग में एक फॉर्म के साथ जमा करना होता था। फॉर्म में तमाम तरह के विवरणों को दर्ज करना होता था और फिर दो जगहों पर दस्तखत की औपचारिकता करके उसे वहां जमा करवाना होता था जिसके बाद तमाम टेबलों पर से गुजरते हुए महीनों बाद उन रुपयों का भुगतान किया जाता था। यह एक माथापच्ची प्रक्रिया थी जिससे गुजरना बड़ा ही कष्टप्रद होता था।

चूंकि सफर में कई तरह के खर्चे वैसे होते हैं जिनकी कोई रसीद नहीं मिलती ऐसे में फर्जी बिल का जुगाड़ करना या फिर खुद फर्जी बिल बनाना भी एक सरदर्द ही होता था। गन्ने का जूस, वडा पाव, समाचारपत्र, शिष्टाचार मुलाकात के दौरान ले जाने वाली चीजें वगैरह के बिल मिलने करीब-करीब असंभव होते थे। खासकर जब सुदूर गांवों में जाना होता था तो वहां स्ट्रीट फुड वाले इतने अनपढ होते थे कि बिल के बारे में पूछने पर उन्हें लगता था कि कोई बाबू आया है और वह डरकर रुपये ही नहीं लेते थे। कई बार तो दफ्तर की पूछताछ से बचने के लिए ढाबे वाले को हाथ से लिखवाकर उनके दस्तखत तक कोरे कागज पर लेने पड़ते थे और अजीबोगरीब अनुभव से गुजरना पड़ता था। चूंकि यह सब सरकारी नियम के तहत होता था तो इसमें आपत्ति जताने का कोई मतलब नहीं था।

कई बार अकाउंट सेक्शन से फोन आता था और कुछ त्रुटियों के बारे में पूछा जाता था। वास्तविकता यह थी कि फर्जीवाड़ा किया जा रहा है यह सभी जानते थे लेकिन समझते भी सब थे कि हर चीज का बिल नहीं मिल सकता।

सबसे मजेदार पिछले साल का फरवरी महीना रहा। दरअसल मार्च में वित्त वर्ष समाप्त होता है और उससे पहले सभी बिल का भुगतान तैयार हो रहा था। मेरे कई बिल लंबित पड़े थे और सबका एकसाथ ही निबटारा हो रहा था। चूंकि सारे बिल एक के बाद एक करके किसी बाबू के आगे पड़े थे तो जाहिर था सभी बिल में करीब-करीब एक ही तरह के हॉटल बिल देखकर वह परेशान हो गया। उसने भरसक कोशिश जरूर की होगी कि मामला उधर तक ही सिमट जाए लेकिन आगे वाले बाबू को भी समझ नहीं आया क्या करें और भुगतान कैसे करें क्योंकि ऑडिट वालों ने अगर देखा तो बेवजह एक चाय का खर्चा और आ जाएगा उनके ऊपर! 


कतरनें कहां कहां की...!

गोआ के चर्च के पास दो बजे का लाईव दे रहा था कि दफ्तर से सर का फोन आया कि लाईव देने के बाद वाट्सएप पर कॉल करना। वाट्सएप पर कॉल का मतलब यही था कि कुछ वैसे बात है जिसके रिकार्ड होने का जोखिम नहीं लिया जा सकता। अपन मन ही मन समझ चुके थे कि फर्जी बिल का मामला इस बार जरूर तूल पकड़ा होगा। वही हुआ, वाट्सएप पर कॉल करने पर पता चला कि अकाउंट सेक्शन वालों ने मेरे बिल का एक पूरा फाईल बनाकर डायरेक्टर के टेबल पर रख दी है। पुणे के बिल में नाशिक को पिन कोड और कोल्हापुर के बिल में सूरत का कोड था। दरअसल एक के बाद एक दौरे के कारण सबजगह का बिल सही से घर में रखना मुश्किल हो गया था और बच्चों ने कुछ इधर-उधर भी कर दिया था तो कुल मिलाकर बिलों की खिचड़ी बन गई थी।

खैर, बॉस ने मामला हैंडल किया और बात रफादफा कर दी गई यह समझाते हुए कि थोड़ा अकल से काम लिया करो।

ये पुराने दिनों की बात हो गई अब। सरकार ने जो नए नियम अब लाए हैं उसमें मेरे लिए अब बिल जमा करने की बाध्यता खत्म हो गई है बशर्ते कि वह जीएसटी का नहीं हो। यह जानकारी मिलने के बाद घर जाकर सबसे पहले मैंने उन कतरनों को निकाला जिसको सहेजा हुआ था! सारे कतरन नष्ट कर देने के बाद जो सुकून मिला उसका कहना ही क्या! 

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