Sunday, April 24, 2022

बाजार

 

                                                         साहित्य में लगा दीमक

मुहल्ले के सैलून में बाल कटवाने गये भले दशक से ज्यादा हो गया हो लेकिन वहां की कई बातें अब भी याद है। मुहल्ले के आवारा लड़कों को सैलून में घुसकर कंघी करते देखकर दो-तीन बार उसी अंदाज में वैसा करना, वहां बैठकर अपनी बारी आने तक अखबार के पन्ने पलटना और सबसे रूहानी याद वहां पड़ी हिंदी की पत्रिकाओं के पन्नों में झांकना।

हिंदी समाज की बुनावटों में साहित्य की बड़ी भूमिका होती है। कई बार देखा जाता है कि एक हिंदी अखबार कई हाथों से गुजरता है और मैंने उस दौर को भी देखा है जब पड़ोसी अखबार मांगकर ले जाते थे और बाद में पढ़कर लौटा देते थे।

खैर, बात उन पत्रिकाओं की जो सैलून में पड़ी रहती थी। सरस सलिल। तब पांच रुपये में आने वाली यह पत्रिका करीब-करीब सभी सैलूनों में दिख जाती थी। वासना से सनी हुई कहानियों के साथ-साथ प्रश्नोत्तरी के नाम पर इसमें वे सब सामग्रियां होती थीं जो किसी किशोर पर चुंबकीय असर डाल सकें। सौतन की कहानियां, भाभी-देवर के संबंध, एकतरफा प्यार वगैरह वगैरह! मुक्तकथन, सच्ची कहानियां, मनोहर कथाएं जैसी और भी कई पत्रिकाएं तब सड़क किनारे बिकती रहती थीं जिनका आवरण किसी महिला के मादकभरे सौंदर्य से सजा होता था। 

हालांकि इनसब चीजों को देखे दशक से ज्यादा हो गया लेकिन पिछले दिनों ट्विटर पर वायरल हुए एक लेख ने अचानक उन पुराने दिनों की यादें ताजा कर दी। गृहशोभा में प्रकाशित यह लेख सरस सलिल के उन लेखो के स्तर की ही थी जिसमें भाई के जाने के बाद देवर और भाभी में अवैध रिश्ते बनते हैं और उसके बाद कहानियां फैंटसी से पंक्ति दर पंक्ति भरती जाती है। 


                                                      

मुंबई की इतनी भागमभाग जिंदगी में जहां इनशॉर्ट्स् जैसे एप्स को भी ठीक से देख पाने का मौका नहीं मिल पाता है, इन लंबे-लंबे लेखों के पढ़ने का क्या ही मौका मिल पाएगा लेकिन रूक कर एक पल के लिए सोचता हूं तो लगता है कि जिन मुहल्लों, कस्बों, बस्तियों में ये पत्रिकाएं वहां के सैलूनों के माध्यम से किशोरों तक पहुंच पाती होंगी वहां कितना नुकसान करती होंगी!

साहित्य समाज का दर्पण होता है और साहित्य समाज को सही दिशा भी देता है लेकिन बाजारवाद ने साहित्य को जो कुरूपता दी है उसने समाज में भी विकृति ला दी है। किशोरों को सही रास्ता दिखाने का तरीका भले ही आज सामने न हो लेकिन उन्हें भटकाने के कई तरीके उपलब्ध हैं और सबसे दुखी की बात यह है कि इसमें साहित्य का भी सहारा लिया जा रहा है।


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