क्या खोया, क्या पाया!
वीडियो कॉल के दौरान पीछे रखा लैंप देखा तो मन थोड़ी देर के लिए ठहर गया।
बत्ती, तेल, शाम, अंधेरा, कटोरी और उसमें भूंजा, तौलिया, टेबल कुर्सी, डायरी और किताब-कॉपियों के साथ पड़ी पत्र-पत्रिकाएं!
क्या वह दौर वापस नहीं लौट सकता!
क्या उस कमरे में मैं वापस उतना सहज नहीं होकर अब रह सकता जैसा तब था। उस कमरे में क्या नहीं था। खिड़की से आती हवा, रेख पर ऱखी हुई किताब और कॉपियां, एक स्टडी टेबल जिसके कोने में शौक से खरीदा गया लाल टैबल लैंप रखा था मैंने! एक लोटे पानी को ढका हुआ छोटा प्लेट और उसके ऊपर उलटा करके रखा हुआ ग्लास!
कभी-कभी ऐसा लगता है कि अपहरण हो गया हो मेरा वहां से! अगर मैं वहां से अपनी मर्जी से निकलता तो वहां पसरे सुकून का एक छोटा सा हिस्सा तो कम से कम अपने साथ पैक कर ही लेता। क्यूं नहीं ला पाया मैं उस कमरे में पड़े सुकून को अपने साथ दिल्ली और मुंबई! और फिर वह सुकून अब वहां भी तो नहीं है। दोनों ही खिड़कियां दीवारों से बंद हो गई हैं और ऊपर वेंटिलेटर लग गया है। एक शादीशुदा आदमी के कमरे में जैसा होता है वैसा उस कमरे के साथ हुआ। छोटे से कमरे के एक कोने में आलमीरा और रेख पर किताबों की जगह अब बक्से वगैरह पड़े हैं। ओह!
ऐसा लगता है कि उस कमरे की दीवारें चीखती हुई मुझे बुला रही हो और कह रही हो कि जो तुम सारा जहां खोज रहे हो वह यहां है! मुंबई आकर ग्लैमरस नहीं होना और दिल्ली में रहकर भी मॉडर्न नहीं होने वाले ओ मुहल्ले के लक्की क्यूं नहीं सबकुछ छोड़कर यहीं आ जाते!
क्या पाया उस कमरे को अलविदा कहकर और क्या क्या खोया जमाने भर को अपने नाम से रूबरू कराने की धधक की वजह से, कौन लिखेगा इसका हिसाब किताब!
क्या कोई लिख पायेगा!
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