राबिस, ईंटा, अदिश-सदिश, सिलौठी, लालटेन, टेलिफोन और पता नहीं कितने शब्द ऐसे हैं जो अब कभी किसी को न बोलते सुनता हूं और न खुद कभी बोलता हूं।
पिछले दिनों ऐसा ही एक शब्द कान से टकराया तो काफी देर तक उसे अपने अंदर रखे रहा। शब्द क्या था अब याद नहीं रहा!
इतने सालों तक किससे छिपता रहा!
उन शब्दों से जुड़ी उस संस्कृति और उस समाज का क्या हुआ जो कभी सुबह-दोपहर-शाम तीनों पहर जगाए रखता था। क्या वह समाज खत्म हो गया! क्या वहां अब दीवारों पर पुताई करके उनपर लगी उन काई को मिटा दिया गया जो उनके पुराने होने के निशान थे!
क्या चौक पर का वह सैलून आज भी वैसे ही है और वहां आने वाले लोग वैसे ही टेबल के कोने में पड़े सरस सलिल में छपी कहानियों को स्वाद लेकर पढ़ते हैं! "एक ऐसी लड़की थी" वाला गाना क्या अब भी कहीं बजता हुआ सुनाई देता है या फिर उनकी जगह किसी आजकल के गाने ने ले ली!
कुछ दिनों पहले घर हुई बातचीत में मालूम चला कि गली में रोड बन रहा है। नगर निगम इतने सालों बाद उस गली पर मेहरबान हुआ जहां न जाने कितनी बार आपसी सहयोग से सड़क बा
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