Wednesday, May 6, 2020

इस उम्र से उस उम्र तक


                                                              चीख                                                   

तीत कैसा भी हो एक समय के बाद अच्छा लगने लगता है। मुर्दा हो चुकी चीजों से या तो सहानुभूति हो जाती है या फिर उसका असर इतना कम हो जाता है कि उसमें वह करेंट नहीं रहता। जैसे करैला देर तक भूने जाने के बाद अपनी कड़वाहट धीरे-धीरे खोने लगता है।

किसी किराएदार को मकानमालिक अगर अचानक जाने को बोल दे तो वह चाहकर भी तत्काल उस किराए के मकान में रखा अपना सारा समान नहीं ले जा सकता है। यादें समेटने की तो बाद बहुत दूर है। उसे थोड़ा वक्त चाहिए होता है समेटने के लिए, वह सब जो धीरे-धीरे किराए के उस मकान में चाहे-अनचाहे समय के साथ जमा होता रहता है। अकाल मृत्यु में आत्मा भटकने की भी यही तार्किक वजह होती है। शरीर से अलग होकर आत्मा अचानक शरीर से जुड़ी तमाम यादों को समेट नहीं पाती और आधे-अधूरे कर्म को लेकर बनी स्थिति उसे बेचैन किए रहती है। ऐसा ही उम्र के साथ भी होता है, बारी-बारी से।

बेगूसराय से वह आखिरी ट्रेन कौन सी थी जिसने दिल्ली छोड़ा था और दिल्ली से वह आखिरी ट्रेन कौन सी थी जिसने मुंबई लाकर छोड़ा और मुंबई से वह आखिरी ट्रेन कौन होगी जो मुझे यहां के माया से दूर कहीं ले जाकर छोड़ देगी, इसका ठीकठाक पता भले ही नहीं है लेकिन इतना जरूर है कि न तो बेगूसराय से सबकुछ समेट पाया और न ही दिल्ली से। यह भी तय है कि मुंबई से भी निकलते हुए सबकुछ शायद ही समेट पाऊं! सायन का पेट्रोल पंप, कल्याण का किनारा, वरली का समुद्र तट, मलाड की खोलियां जो समेट भी लिया तो कुछ न कुछ तो रह ही जाएगा जो पीछे रह जाने पर आवाज देगा ही!

बहरहाल जो चीख लोहियानगर से आ रही है वैसी चीख शायद ही कहीं और से आए। अपने मुहल्ले के लिए एक अकाल मृत्यु सा होना ही प्रारब्ध में रचा था तो सिवाय इसके और भला क्या किया जा सकता था!

अरथिंग में नमकीन पानी दे-देकर जिस घर में बल्ब की रोशनी को तेज करने में शाम और रात बीती, वहां से समेटने के लिए इतना कुछ था कि विक्रमशीला, वैशाली और गरीबरथ के सभी डब्बों को जोड़ दिया जाता तो भी उसे दिल्ली ला पाना मुश्किल था।


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