चीख
अतीत कैसा भी हो एक समय के बाद अच्छा लगने लगता है। मुर्दा हो चुकी चीजों से या तो सहानुभूति हो जाती है या फिर उसका असर इतना कम हो जाता है कि उसमें वह करेंट नहीं रहता। जैसे करैला देर तक भूने जाने के बाद अपनी कड़वाहट धीरे-धीरे खोने लगता है।
किसी किराएदार को मकानमालिक अगर अचानक जाने को बोल दे तो वह चाहकर भी तत्काल उस किराए के मकान में रखा अपना सारा समान नहीं ले जा सकता है। यादें समेटने की तो बाद बहुत दूर है। उसे थोड़ा वक्त चाहिए होता है समेटने के लिए, वह सब जो धीरे-धीरे किराए के उस मकान में चाहे-अनचाहे समय के साथ जमा होता रहता है। अकाल मृत्यु में आत्मा भटकने की भी यही तार्किक वजह होती है। शरीर से अलग होकर आत्मा अचानक शरीर से जुड़ी तमाम यादों को समेट नहीं पाती और आधे-अधूरे कर्म को लेकर बनी स्थिति उसे बेचैन किए रहती है। ऐसा ही उम्र के साथ भी होता है, बारी-बारी से।

बहरहाल जो चीख लोहियानगर से आ रही है वैसी चीख शायद ही कहीं और से आए। अपने मुहल्ले के लिए एक अकाल मृत्यु सा होना ही प्रारब्ध में रचा था तो सिवाय इसके और भला क्या किया जा सकता था!
अरथिंग में नमकीन पानी दे-देकर जिस घर में बल्ब की रोशनी को तेज करने में शाम और रात बीती, वहां से समेटने के लिए इतना कुछ था कि विक्रमशीला, वैशाली और गरीबरथ के सभी डब्बों को जोड़ दिया जाता तो भी उसे दिल्ली ला पाना मुश्किल था।
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