Tuesday, December 4, 2018


                                                    उम्र का भ्रम   

एकांत को जीना भीड़ को जीने से अच्छा ही तो होता है। भीड़ में चाहे मैं रहूं या चाहे भीड़ मेरे कारण हो, आखिरी नतीजा उन्माद जैसा ही कुछ होता है।

खुद को कुरेदने का वक्त हालांकि अब हाथ नहीं लगता लेकिन जिस रफ्तार से नये लोगों से मिलते ही दूरी बनाने लगता हूं कई बार लगता है कि इसकी कोई तो वजह होगी! कभी कुछ तो ऐसा हुआ होगा कि नये लोगों को आसपास देखते ही चौकन्ना हो उठता हूं।

जिस क्षेत्र को नेटवर्किंग के लिहाज से बहुत संवेदनशील माना जाता है और जिस क्षेत्र को उपयोग करके लोग राजनीति में बहुत दूर तक पहुंच जाते हैं या फिर किसी ठीकठाक धंधे में लगकर रुपये बटोरने की कला में माहिर हो जाते हैं उस क्षेत्र में पैठ बनाने के बाद भी इतनी दूर ही चल पाने की आखिर कोई तो वजह होगी।

किसी दार्शनिक का एक कथन कहीं प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर आप जिंदगी शांतिपूर्वक बिताना चाहते हैं तो लोकप्रियता से बचें। यहां लोकप्रियता का मतलब फैन-फोलोइंग से था शायद।

करीब सात साल पहले पब्लिसिटी का जो चाहा-अनचाहा स्वाद मिला था उसके बाद संभलने का भी मौका मिला। अच्छा यह हुआ कि उस पब्लिसिटी से जल्द ही पीछा छुटा और दिल्ली ने मुंबई भेज दिया। मुंबई में आते ही दिल्ली बीते पन्ने की तरह हो गई और फिर उन पन्नों को कभी पलटने की न तो इच्छा हुई और न ही कभी समय ने अतिरिक्त मोहलत दी इन पन्नों से होकर गुजरने का।

अभी भी पुराने दौर के कुछ फैन्स संपर्क बनाने की कोशिश करते हैं। कई बार तो वह अपने किसी बेहद आपत्तिजनक ट्विट में हेंडल तक मेंशन इस उम्मीद में कर देते हैं कि मैं उसे रिट्विट कर दूं। बैंक अकाउंट उन लोगों को न देकर एक सही फैसला ही किया था मैंने। कम से कम किसी के एहसान तले दबे होने का आभास कभी नहीं होता है।

दिल्ली के बीते दिन और फिर मुंबई में लोगों की नजर में आना सबकुछ रोज पुराना होता है। हर नई सुबह बीती शाम से कोसों दूर लगती है। ऐसा लगता है कि बीती रात कई सदी पहले की कोई रात हो। क्या यह जिंदगी की रफ्तार है? शायद हां!

कई बार ऐसा हुआ है कि दिन और तारीख याद नहीं रहते। कई बार यह याद नहीं रहता कि उस रोज जो कांफ्रेंस अटेंड किया था उसके बाद का दिन बीत गया या आज है! सेब खाना, प्राणायाम करना, चलना, सवेरे नहाना और भी कई तरीकों को अपनाया यह सोचकर कि इससे यादाश्त ठीक होगी लेकिन नतीजा कुछ खास नहीं रहा। ऐसा लग रहा है कि चीजें इतनी तेज रफ्तार से पीछे भाग रही है कि इसे रोकना या धीमा कर पाना अब बस की बात नहीं रही।

आईने में रोज सुबह जब बालों को देखता हूं तो असमंजस की गहराई में अपनेआप उतरने लगता हूं। आईने को कान के बहुत पास लाकर खोजने की कोशिश करता हूं कि कोई एक उजला बाल मिल जाये ताकि जवानी से रिहाई का कोई संकेत दिख जाये लेकिन नहीं मिलता। कब उजले होंगे बाल और कब इस जवानी से रिहाई मिलेगी पता नहीं! कॉलोनी की बच्चियां काका बोलती हैं तो अच्छा लगता है इसी तरह लोकल में कोई अंकल कह दे तो सुकून मिलता है। ऐसा लगता है कि बस अब हो चले बुजुर्ग!

जवानी को भरपूर जी लेना और लोकप्रियता से बहुत दूर शांति से एकांत को जीना ही परमसुख है।

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