अबकी बरस!
कुछ था जो उस वक्त हवाओं में घुल जाता था।
पतंग का मौसम भी करीब होता था और हर गली के पास से उठता हुआ धुआं उस खुशी को बढ़ा देता था। कचरा खरीदने वाली जिसे महानगर में भंगार बोला जाता है, तब और अधिक सक्रिय हो जाया करती थी। सुबह से ही उसकी आवाज सुनाई देनी शुरू हो जाती थी। घर के बच्चों को बस इंतजार होता था मम्मी के इशारे का और फिर वे तुरंत बाहर निकलकर आवाज का पीछा करने लगते। आवाज जिस भी गली से आती वह उसे छान लेते और फिर भंगारवाले को घर पर बुलाकर रद्दी, काम न आने वाला सामान, पुराने चप्पल जूते, घड़ी की बैट्री वगैरह देकर कुछ रुपये लिये जाते थे।
बगीचे और गलियों में झाडू देकर कचरा एक जगह जमा करने के बाद पूरे दिन छोड़ दिया जाता था ताकि वह धूप में सूख सके। सूखने के बाद केरोसीन छीट कर उसे जलाया जाता था और जलने के बाद जो महक उठती वह दीपावली की आहट होती थी जिसे सूंघकर मन बागबाग हो जाता था।
स्कूल के दिनों की इन यादों को जीते हुए कितना अच्छा लगता है। स्कूलों की छुट्टियां, घर से मिले कुछ रुपये, दीपावली की खरीदारी, सजावट, कपड़े, घरकुंडे, मुरही-बताशा, शंठी, हुक्कापाती और एक शांत वातावरण!
पापाजी फिजुलखर्ची बिल्कुल नहीं करना चाहते थे। बनाबनाया हुक्कापाती न लेकर वह शंडी और सोन लेकर घर आते थे और फिर दिन के करीब दो बजे रेडियो सुनते हुए वह खुद ही शम्मत बनाते थे। अपने बाल खुद काटना उनका शौक है और बाल सैलुन में कटवाना भी वह एक तरीके से फिजुलखर्ची मानते थे। हालांकि हमलोगों को सैलुन भेजने में कभी हिचकिचाते उन्हें नहीं देखा। एक मध्यवर्गीय परिवार का मुखिया एक कुशल प्रबंधक होता है।
दीपावली का वह दौर, जो कि बहुत लंबा नहीं चला, भाता था। आसपास में हमउम्र के लड़कों का होना भी इसकी एक वजह थी। सब लड़के रात में छत पर पटाखा फोड़ते थे। पटाखे में दिलचस्पी न होने के बावजूद छत पर आकर अच्छा लगता था। हर तरफ रोशनी, हर तरफ कुछ लोगों का समूह, परिवार की लड़कियों का पड़ोस की लड़कियों के साथ छत पर गपशप, किसी का पटाखा फोड़ते हुए डरना, किसी का बहुत खुश होना, किसी का एक कोने में खड़े रहकर सबकुछ देखना और किसी का बस वहां होने भर से पूरे माहौल का उमंगित होना, कितना भाता था तब!
---
दिल्ली में मनहूसियत कभी कम तो कभी ज्यादा हावी रही। कई बार चूक जाने की आशंका मन को भारी कर देती थी। मालूम चले कि किसी को बैंक की नौकरी लग गई तो मन बैठने सा लगता था। इतना बड़ा सपना देखना क्या सही था?
दीपावली को घर जाने से झिझक होने लगी। इंजीनियरिंग की होड़ में सभी इंजीनियर होने लगे और जो बचे वे बैंक की तैयारी में खप रहे थे। पत्रकारिता क्या कोई करियर भी हो सकता है? दिल्ली में क्या पढ़े और उससे क्या हासिल कर लिया? सरकारी नौकरी तो नहीं मिलेगी!
न्यू अशोक नगर एक स्लम ही तो था। दीपावली में घर नहीं जाने का सबसे बड़ा खतरा तो यह होता था कि आसपास के लोगों में यह कौतूहल का विषय होता था। तुम घर नहीं गये? नहीं गया। छुट्टी नहीं मिली क्या कंपनी में?
कंपनी? स्लम वाले लोग कंपनी में ही तो जाते हैं! कंपनी। वाह। अच्छा है।
योगेश भैया का कमरा अंधेरा है..आप मोमबत्ती नहीं जलाये?
जलाऊंगा बाबू...अभी कुछ काम कर रहा हूं।
लैपटॉप में रखी तस्वीरें ऐसी तन्हाइयों में ही तो काम आती है। चैत से लेकर फागुन तक की रंगबिरंगी तस्वीरों के बीच कटती दिल्ली की वह तन्हा रात यूं ही तन्हा रह जाती अगर खुशी चुपके से कमरे में घुसकर मोमबत्ती न जला देती।
पड़ोस की वह बच्ची जिस आत्मविश्वास से मेरे कमरे में घुसी थी, वह चौंका देने वाला था। अपने कमरे की निजता का इतिहास कुछ ऐसा रहा है कि कमरे का दरवाजा खुला दिखने पर घर के बाकी लोग उसे भिरका दिया करते थे कि कहीं कोई भूल से मेरे कमरे में न आ जाए!
---
भाग्य के साथ यह पहली दीपावली है। प्रधानमंत्री का शिर्डी दौरा नहीं होता तो शायद हम दशहरा भी साथ मना पाते!
इस बार शायद दीपावली त्यौहार की तरह मने। रौशनी हो, पटाखे हों, मिठाइयां हो और कई सालों का बकाया ब्याज हो!

No comments:
Post a Comment