एक सरकारी फैसला
उनका तबादला अप्रत्याशित था क्योंकि ज्यादा समय नहीं हुआ था उन्हें यहां कार्यभार संभालते हुए।
सर, शादी की बात चल रही है समझ नहीं आ रहा क्या करूं!
जाओ जाकर शादी कर लो...
लेकिन लॉ आधे पर है, शादी के बाद कहीं पढ़ने का माहौल न मिला तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा!
कोई फर्क नहीं पड़ेगा, समय पर सबकुछ हो जाये तो अच्छा रहता है...
एलफिन्स्ट्न रोड की ट्रैफिक में शुरू हुई बात अंटॉप हिल सेक्टर पांच तक चलती रही।
वह आदमी तजुर्बे से ठस्स है, यही एक स्थिर राय समय के साथ उनके लिए बन गई थी। हालांकि उनके बारे में कई राय बनी लेकिन वह बदलती रही, जो राय हमेशा के लिए बनी रही वह सिर्फ थी कि आदमी के पास जानकारियों का खजाना है और सिविल सेवा में चयन होने तक उसने तीसरा पहर को बिताया है।
उनकी सबसे अच्छी बात यह होती थी कि वह पर्याप्त रूप से सकारात्मक रहते थे और चिड़चिड़ापन उनमें जरा भी नहीं था। कई बार ऐसा लगता था कि इस बात से वह चिड़चिड़ा होंगे लेकिन वैसा होता नहीं था।
एक बार भाईंदर में होली मिलन समारोह में राज्यवर्धन सिंह राठौर आए हुए थे। उन्होंने लंबाचौड़ा भाषण दिया और खूब तालियां बटोरी। राठौर को भी शायद भीड़ के इतने जोशिले होने का अंदाज नहीं था और उन्होंने कार्यक्रम खत्म होते ही अपने निजी सचिव से मुझे फोन करवा कर अगले दिन सवेरे मुंबई एयरपोर्ट पर पूरे कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग देने के लिए कहा। यह एक सरदर्द ही था क्योंकि उस वक्त अंधेरी की भयानक जाम में मैं फंसा था और रॉ फीड को लेकर ऑफिस जाकर उसे सीडी में कन्वर्ट करके और फिर उसे देने लायक बनाने का मतलब कि ड्यूटी से ऑफ हो चुके अलग-अलग विभाग के कर्मचारियों के आगे सर पटकना सहित कई चरणों की जद्दोजहद होने वाली थी।
दरअसल वह होली शादी के बाद मेरी पहली होली थी और मैं और भाग्य ने तय किया था कि साथ में पुआ और पनीर बनाया जाएगा। स्थिति कुछ ऐसी बनी कि रविवार होने के बावजूद उस इवेंट के लिए उन्होंने मेरा नाम दे दिया और ऑफिस ऑर्डर के कारण मेरा और भाग्य की होली की सारी तैयारियां धरी रह गई। तय किया कि भाग्य को भी उस इवेंट में साथ लेकर जाऊंगा और फिर हमदोनों उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में साथ ही शिरकत किये। भाग्य पत्रकार दीर्घा में बैठी रही और मैं रिपोर्टिंग करता रहा।
मंत्री के सचिव का फोन आन तनाव के आग में घी तरह था। थोड़ी देर मैंने फोन बगल में रख दिया और फिर दिमाग में कुराफात आई और मैंने सचिव को कॉलबैक करके उनका नंबर दे दिया। अपना रविवार और भाग्य के साथ उस दिन के लिए की गई तैयारी खराब होने के बदले क्यूं न उनका भी रविवार खराब कर दिया जाये!
थोड़ी देर बाद सचिव का कॉल आया तो मैंने कॉल ली ही नहीं। फिर उनका फोन आया,
अरे क्या हो गया...
पता नहीं सर, मुझे फोन पर उन्होंने सीडी देने कहा..
लाईब्रेरी को फोन करके कह दो..
ठीक है सर..
बात हुई। काम हो गया। शिकन तो थी लेकिन चिड़चिड़ापन तब भी नहीं दिखा।
खैर, अगर ऑफिस में थोड़ा बहुत अनुशासन कायम हो पाया है और दिल्ली- मुंबई समन्वय ज्यादा सुलभ हुआ है तो इसका श्रेय भी उनको ही जाता है।
महीनों तक ऑफिस से अंटॉप हिल तक लिफ्ट देने और नेगेटिविटी का सामना करने में उन्होंने जो भावनात्मक मदद दी उसके लिए एक अफसर से अलग उनके व्यक्तित्व को भुलाना शायद कभी मुमकिन नहीं हो पाएगा।
चूंकि वह खुद काफी संघर्ष करके आगे आये थे और आईआईएस बनने के बावजूद उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा आईएएस बनने के लिए दी थी, उन्होंने मेरे लॉ में जहां तक हो पाया, मदद किया। उनको भी पता था कि अगर मैं अभी ठहर गया तो दूरदर्शन के अनिश्चित भविष्य का सामना करने में मेरे द्वारा बरती गई लापरवाही को समय कभी माफ नहीं करेगा।
कई बार ऑफिस पॉलिटिक्स का वह भी हिस्सा बने। छोटी-मोटी वाट्सएप पॉलिटिक्स में उनकी संलिप्तता रही। ज्यादा तेज दौड़ने के कारण उन्होंने कई बार ऑफिस के सामने कुछ चुनौतियां भी खड़ी करवा दीं। बहरहाल, एक अफसर के लिए अपने कार्यकाल में ये सब अपेक्षित ही होता है।
देर से आने के लिए जितनी फटकार उनकी लगी उतनी दिल्ली के डीएलए में भी नहीं थी। एक समय तो ऐसा हो गया कि उन्होंने करीब पांच दिनों के लिए मीटिंग में मेरी "नो एंट्री" कर दी। वो एंट्री तब खत्म हुई थी जब मैं रेनकोन में पूरी तरह भींगा हुआ उस दिन उनके केबिन के बाहर दरवाजे को थोड़ा खोलकर "मे आई कम-इन सर" कहा था। उन्होंने चेहरे के भाव से जो अंदर आने के लिए कहा, उनके चेहरे का वह भाव हमेशा के लिए दिमाग में प्रिंट हो गया।
कभी वह हार्डकोर ब्यूरोक्रेट और कभी क्लोज फ्रेंड की तरह रहे। खुद को क्रेडिट देने का वह कोई मौका नहीं छोड़ते तो दूसरों को भी ईमानदारी से क्रेडिट देते थे।
मुंबई दूरदर्शन के वह पहले और आखिरी अफसर होंगे, जो इतना तेजतर्रार रहा कि उसे जज कर पाना मुश्किल रहा कि मेरी उनके बारे में कोई आखिरी राय तीन साल में भी स्थापित नहीं हो पाई।
और अंत में...
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दफ्तर-ए-मुंबई दूरदर्शन |
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