थोड़ा नाराज हूं मैं गुलजार!
जब 24 अप्रैल को बांद्रा में मतदान केन्द्र पर गुलजार से मैंने पूछा कि उन्होंने इस बार आपने किस मुद्दे को ध्यान में रखकर वोट किया तो उन्होंने कहा कि हम 1947 देख चुके हैं और दोबारा नहीं देखना चाहते. आगे उन्होंने जोड़ा कि उन्होंने धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए इस बार वोट किया है.
गुलजार की लेखनी के प्रशंसकों में से एक होने के बावजूद मुझे एक विचलन सी हुई गुलजार से तब. कुछ दिन पहले ही दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने की घोषणा होने के बाद उनसे मिलने गया था. बोस्कियाना से निकल ही रहे थे हमलोग कि महाराष्ट्र सरकार के कुछ अफसरशाह उनसे मिलने पहुंचे. उनके हाथ में गुलदस्ते थे जिससे मुझे लगा कि वह गुलजार को बधाई देने आए होंगे.
मैं अपने सामाजिक अनुभव से इतना समझने लगा हूं कि मूर्तियां बनाई और तोड़ी जाती हैं.
खैर वो दिन आया जब सोनी सोंरी के गुप्तांग को पत्थरों से भर देने वाले पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग को सम्मानित करने वाले राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने गुलजार को दादा साहब फाल्के अवार्ड से नवाजा.
ठीक से याद नहीं पर कई दफा ऐसी खबरें पढ़ा हूं अखबारों में कि फलां आदमी ने फलां सम्मान लेने से इन्कार कर दिया. ऐसा साहित्य और कला के क्षेत्र में ज्यादा होता है. मसलन साहित्य अकादमी के द्वारा दिए गये अवार्ड हों तो ऐसी खबरें अधिक आती हैं.

चहुंओर भयानक आरोपों से घिरी कांग्रेस पार्टी को अगर कोई वोट दे रहा है तो यह उसकी स्वतंत्रता है इसलिए उसपर मैं क्या टिप्पणी करूं लेकिन गुलजार को लेकर मन थोड़ा सुस्त पड़ चुका है अब.
गुलजार एक अनोखे लेखक हैं इसमें दोमत नहीं है लेकिन अगर वह देश को लेकर इतने फिकरमंद हैं कि वह चुनाव में वोट डालने के लिए आते हैं तो फिर मुंबई में रहकर वह अबतक यह क्यूं नहीं जान पाये कि मुंबई आतंकवादी हमले में शहीद हुए हेमंत करकरे पर भी राजनीति करने वाली पार्टी यही कांग्रेस पार्टी है जिसे वह "सांप्रदायिक ताकत" से बचाने के लिए वोट करने जा रहे हैं.
विकीलिक्स ने अपनी रिपोर्ट में इसे माना है कि कांग्रेस देश में सांप्रदायिक राजनीति पर नए-नए शोध पार्टी के सत्ता में बने रहने के लिए करती है. बावजूद अगर गुलजार कांग्रेस के साथ इतनी सहानुभूति रखते हैं तो उनके समूचे व्यक्तित्व के किसी हिस्से से मुझे नाराजगी है.
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